Friday 12 June 2015

जसम का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन

जन संस्कृति मंच का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन
31जुलाई- 01अगस्त, 2015

इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि 
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौन्दर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति,
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद-
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ, सुन्दर जाल-
केवल एक जलता सत्य देने टाल

मुक्तिबोध : 
'पूंजीवादी समाज के प्रति' शीर्षक कविता (1940- 42) से 


2015  के भारत के नए 'कंपनी राज' के नेताओं-कारिंदों की मानें तो तमन्नाओं और हसीन सपनों, इसी धरती पर स्वर्ग का आनंद लेने, फैशन, लाइफस्टाइल और अंतहीन उपभोग के विश्व-प्रतिमानों को छू लेने का समय भारतवासियों के लिए आ गया है. बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, आठ लेन की सड़कें, खूबसूरत विश्वस्तरीय कारें, क्लब, पब, होटल और अपार्टमेंट्स, हैरतंगेज़ उपभोक्ता वस्तुएं जिनके लिए 'इंडिया' का दिल धड़कता है, अब हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही हैं. अच्छे दिन आ गए हैं. पूंजीवाले सारी दुनिया से आ रहे हैं 'नया इंडिया' बनाने. हमें बस उन्हें अपनी प्राकृतिक और बौद्धिक संपदा मुक्त हाथों से सौंप देनी है. दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा बेरोजगार और गरीब यहाँ रहते हैं, वे असंभव सी मजदूरी दर पर काम करके 'हमारे' सपनों का भारत बना डालेंगे.

भारत का वर्तमान 'कंपनी राज', अपना अलग 'ज्ञान-काण्ड' रच रहा है, सौन्दर्य के अपने प्रतिमान निर्मित कर रहा है. मुनाफे के लिए अबाध लूट को 'सबका विकास' बता रहा है, जबकि विकास दर की बुलंदियों के वर्षों में भी औसत हिन्दुस्तानी की खाद्य ज़रुरत (कैलोरी इंटेक) में लगातार कमी यानी गरीबों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है. पिछले एक साल में किसान आत्महत्या कुछ प्रदेशों से बाहर निकलकर पूरे भारत की परिघटना बन गयी है. यही वे जलती सच्चाइयां हैं जिन्हें टाल देने को एक अद्भुत सुन्दर जाल बिछाया गया है. लगता ही नहीं कि दुनिया के सबसे ज़्यादा गरीब, सबसे ज़्यादा बेरोजगार, सबसे ज़्यादा निरक्षर इसी देश के रहनेवाले हैं.

यह एक बहुत पुराना देश है हमारा जहां खेत-खलियान, नदियाँ, पहाड़, जंगल और मनुष्य- सब का अब एक ही मूल्य निश्चित किया जा रहा है- वह यह कि वे 'मुनाफे की सभ्यता' के कितने काम के हैं, कितने नहीं. इनके मालिक अब देशवासी नहीं , बल्कि देशी-विदेशी पूंजी के सरदार होंगे. भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) के दौरान अजीमुल्ला खान द्वारा रचित राष्ट्रीय गीत की पहली पंक्ति थी- 'हम हैं मालिक इसके हिन्दोस्तान हमारा'. अब इस देश की मालिक हैं 'कम्पनियां'. इन कंपनियों के मुनाफे की प्यास बुझाने के लिए कितने खेत-खलियान काम आएँगे, कितनी नदियाँ बांधी, उलीची या कचरों से पाटी जाएँगी, कितने पठार-पहाड़ धरती के गर्भ में छिपी निधियों की लूट के लिए तोड़े जाएंगे, कितने जंगल मुनाफे की आग मे जलेंगे और कितने मनुष्य जो इन पर निर्भर हैं अपनी जड़ों और जीविका के साधनों से उखाड़े जाएंगे, इनका आकलन, सर्वेक्षण करके पूंजी के सरदारों को सौंपना आज 'ज्ञान' कहला रहा है. प्रकृति और मनुष्य के श्रम (शारीरिक और बौद्धिक) को पूंजी के मुनाफे में तब्दील करने में बहुत सा प्रबंधन, बहुत सा शोध, बहुत सा कौशल, बहुत सी प्रौद्योगिकी, बहुत सी कला, बहुत सा ज्ञान-विज्ञान लगा है और यही आज की 'नॉलेज सोसायटी' का क्रिया-व्यापार है.

अब अंतिम तौर पर यह बात समझ लेने की है कि शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, हवा. भोजन और मकान जैसी चीज़ें नागरिकों का अधिकार नहीं है, जिन्हें सुनिश्चित करने को सरकारें चुनी जाती हैं. अब ये सब चीज़ें पूंजी के मालिकों से खरीदनी होंगीं और उन्हीं के लिए और उसी अनुपात में उपलब्ध होंगी जिनके पास जितने लायक पैसा है. यही 'गवर्नेंस' है.

पिछले 25 सालों से जारी भारत के भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में पिछला साल एक नया और खतरनाक मोड़ लेकर उपस्थित हुआ. विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (2008, 2011) से पूंजी के मुनाफे की दरों की बढ़त में रुकावट आई. मुनाफे को बढाने का एकमात्र तरीका था प्राकृतिक संसाधनों की लूट और श्रमशक्ति के अबाध शोषण के रास्ते में आनेवाली हर बची खुची बाधा को निर्ममता के साथ ख़त्म करना. श्रम क़ानून और मनरेगा जैसी योजनाएं श्रमशक्ति की लूट में बाधा थीं और भूमि अधिग्रहण क़ानून, वन अधिकार क़ानून, खाद्य सुरक्षा कानून आदि प्राकृतिक संसाधनों की लूट के रास्ते की रुकावटें थीं. इस लूट-पाट पर निगरानी रखने और जनता की नज़र में लानेवाले सूचना के अधिकार जैसे क़ानून और न्यायपालिका, सी.वी.सी., सी.ए.जी. आदि संस्थाओं को निष्प्रभावी बनाना ज़रूरी था, अर्थजगत में अभी भी बहुत कुछ ऐसा बच गया था जिसे निजी पूंजी के हवाले किया जाना था. यह सब जो कारगर ढंग से कर सके और साथ ही साथ जनता को रंगीन सपने बेचते हुए जन-आन्दोलनों का निर्भीक तरीके से दमन कर सके, लोकतांत्रिक आवरण में ऐसे अधिनायकवाद की कारपोरेट मांग 'मोदी परिघटना' के रूप में सफल हुई.

पूंजी की सता आज निरंकुश आत्मविश्वास से भर कर बोल रही है, "सब हमें चुपचाप सौंप दो! किसानों! जमीन लेने से पहले, हम तुमसे पूछेंगे नहीं. जंगलों और पहाड़ों पर रहनेवालों! तुम्हारे पहाड़ों और जंगलों का मूल्य हम जानते हैं, इन्हें हमारे लिए खाली करो, हम तुमसे पूछेंगे नहीं. मजदूरों, श्रम कानूनों के चलते जो कुछ सुरक्षाएं तुम्हें मिली हुईं थी, अब वे बीते दिनों की बातें होंगी. तुम्हारी संगठित सौदेबाजी, तुम्हारी हड़तालों के दिन लद चुके हैं. देखो, हम खेत, खलियानों, जंगल, पहाड़ों से कितनी बड़ी तादाद में उखड़े हुए लोगों की फ़ौज खड़ी कर रहे है, हमारे लिए काम करने के लिए. मुनाफे की राह में सारी बाधाएं दूर करने का हमें 'जनादेश' मिला है. तुम जिसे मुनाफ़ा कह रहे हो, वही 'विकास' है. अधिकारों और संघर्षों के लिवे सड़क पर उतरनेवालों, सावधान! संविधान में प्रदत्त अधिकार दमन से तुम्हारी रक्षां नहीं कर सकेंगे." सच है कि तीसरी दुनिया के देशों में नव-उदारवाद का काम पूंजीवादी लोकतंत्र के अपेक्षया उदार रूप से नहीं , बल्कि अंततः तानाशाही रूप से ही चला करता है.

विकास एक खूबसूरत गुब्बारा है, जो मीडिया के आसमान में बुलंदियों को छू रहा है. मीडिया का बड़ा हिस्सा किसी भी समय से ज़्यादा अब पूंजी के घरानों के हाथ में है. कारपोरेट मीडिया लूट की डोर से बंधी झूठ की पतंग की मानिंद हमारी चेतना के आकाश में लहरा रहा है. लूट और झूठ के साथ टूट और फूट वर्तमान कारपोरेट सत्ता-संस्कृति के प्रमुख अस्त्र हैं. जो लोग सिर्फ 'सूट-बूट' से उसकी शिनाख्त कर रहे हैं, वे 'लूट-झूठ-टूट-फूट' में खुद की संलिप्तता पर पर्दा डाल रहे हैं. राष्ट्रीय, जातिगत, लैंगिक, धार्मिक, नस्लीय और क्षेत्रीय पहचानों और आकांक्षाओं को शान्ति, बराबरी, सौहार्द्र की जगह आपसी वैमनस्य, हिंसा और प्रतिशोध की दिशा में नियोजन अब सूचना और संचार के आधुनिकतम साधनों के ज़रिए भारी प्रबंध-कुशकता के साथ किया जा रहा है. व्हाट्स एप्प या इंटरनेट पर फर्जी तस्वीरें या वीडियो अपलोड करके दंगे कराए गए हैं, हत्याएं की गयी हैं. प्रशिक्षित स्थानीय साम्प्रदायिक टोलियाँ टूट-फूट या तोड़-फोड़ की कार्यवाहियों में दुगुने आत्मविश्वास से जुटी हुई हैं- 'सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का'. सांप्रदायिक उन्माद की गुंजायश तलाशते सत्ताधारी सांसद, मंत्री, प्रवक्ता अपने बयानों से इन टोलियों को उत्साहित करते हैं. कभी अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक धर्म में 'घरवापसी' की सीख दी जाती है, कभी उन्हें मताधिकार से वंचित करने की धमकी, तो कभी उनके धर्मस्थलों को हमले का निशाना बनाया जाता है. कारपोरेट लाभ-लोभ के विरुद्ध काम करनेवालों या फिर सत्ता-प्रेरित साम्प्रदायिक गतिविधियों के विरुद्ध लड़नेवाले सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं को फर्जी मामलों में फंसाने में राजसता का सीधा उपयोग अब आम बात है.

आज आलोचना की संस्कृति का ध्वंस या उसे निष्प्रभावी बनाने के नित नए हथकंडों का आविष्कार और उन्हें आजमाया जाना बताता है कि 'जलती हुई सच्चाइयों' के साक्षात्कार को टाल देने के कितने भी निपुण प्रयास पूंजीवादी समाज करता हो, वह मानवीय विवेक-बुद्धि की प्रतिरोधी आलोचनात्मक चेतना को अंततः हर नहीं सकता, अतः दमन का सहारा लेना ज़रूरी हो उठता है. यह संभव नहीं कि जिस समाज का तेज़ी से 'स्वत्वहरण' किया जा रहा हो, 'लूट-झूठ-टूट-फूट' की सत्ता-संस्कृति जिसे भौतिक और चेतनागत धरातल पर विघटित कर रही हो, उसका कोई भी हिस्सा इसके बारे में विवेकपूर्ण ढंग से न सोचे और इस प्रक्रिया की आलोचना न करे. 'जलते सच' को देखने और दिखाने के लिए बुद्धि-विवेक की आँखें चाहिए. समाज की इन आँखों को अंधा करने के लिए, उनकी विवेक-बुद्धि को हर लेने के लिए, उनकी वर्तमान दुरावस्था की क्षतिपूर्ति के बतौर अतीत की रमणीय मिथकीय कल्पनाओं की आपूर्ति करने से लेकर एक भ्रष्ट और उन्मादी इतिहास-बोध में समाज को दीक्षित करने का काम शिक्षा, संस्कृति और नागरिक समाज की विभिन्न संस्थानों के ज़रिए सरकार तेज़ी से करने में जुटी हुई है. इस सत्ता-संस्कृति के दोनों बाजुओं यानी कारपोरेट लोभ और साम्प्रदायिक उन्माद, किसी भी पक्ष के प्रति आलोचनात्मक चेतना का निर्माण करनेवाले संस्कृतिकर्मियों को अपमानित, प्रताड़ित और असहाय बनाना इस सत्ता-संस्कृति की ज़रुरत है. किताबों को जलाना, नाटकों का मंचन रोक देना, फिल्मों का प्रदर्शन, सभाओं और सेमिनारों को बाधित करने की तो एक परम्परा ही बन गयी है, जो अब प्रत्यक्ष सता-संरक्षण में उफान पर है.

आज एक नया विमर्श रचने की ज़रुरत है. स्वतंत्रता, समानता, नागरिक अधिकार, सामाजिक न्याय, अभिव्यक्ति और सृजन की आज़ादी, आर्थिक स्वावलंबन और धर्मनिरपेक्षता के विमर्श, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के सभी रूपों के अंत के सपने कभी पुराने नहीं पड़ेंगे, लेकिन उन्हें भी मानव-मुक्ति के वर्तमान युग-धर्म के रूप में नया विन्यास चाहिए. हम संस्कृतिकर्मी अपने समस्त कला-कर्म, सृजन और संघर्ष के सभी रूपों की मार्फ़त इस नूतन विन्यास को रच सकें, इसी मंथन और तैयारी के लिए हम 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रेमचंद जयंती (31जुलाई) और 01अगस्त को दिल्ली में मिल रहे हैं. आपका साथ हमारी ताकत और संबल होगा.

( जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद् द्वारा जारी)   

Tuesday 2 June 2015

नव उदारवादी नीतियों का यथार्थ और श्रमिक वर्ग की चुनौती - कुमार स्वामी


[समकालीन जनमत के जून अंक से] 

(आल इंडिया सेंट्रल काउंसिल आफ ट्रेड यूनियंस (ऐक्टू) का 9वां राष्ट्रीय सम्मेलन 4-6 मई को पटना के रवीन्द्र भवन में आयोजित हुआ। इसका नयापन यह था कि सम्मेलन शुरू होने से पहले 4 मई को स्थानीय गांधी मैदान से मजदूर-किसान अधिकार मार्चनिकाला गया, जो आर. ब्लाक चैराहे पर आकर एक विशाल जनसभा में तब्दील हो गया। चिलचिलाती धूप के बावजूद इस मार्च और सभा में सम्मेलन के प्रतिनिधियों व अतिथियों समेत हजारों की तादाद में मजदूरों और मेहनतकश किसानों ने भाग लिया। मार्च का नेतृत्व ऐक्टू के महासचिव का. स्वपन मुखर्जी, राष्ट्रीय अध्यक्ष एस कुमारस्वामी, ग्रीस में कटौती-छंटनी के खिलाफ चले आंदोलन के नेता निकोलस, नेपाल से कुलबहादुर खत्री व कमलेश झा और बांग्लादेश के मजदूर नेता तपन दत्ता आदि नेता कर रहे थे। इस सभा को इन नेताओं के अलावा भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने भी संबोधित किया। इस सम्मेलन की दूसरी खासियत यह थी कि कांग्रेस और भाजपा से संबद्ध ट्रेड यूनियनों को छोड़, जिन्हें आमंत्रित नहीं किया गया था, शेष सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के प्रमुख नेता सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर मंच पर उपस्थित थे। सबने सम्मेलन को संबोधित किया और दो बातों का सबने अपने भाषण में उल्लेख किया - किसान-मजदूर रैली और ऐक्टू के अध्यक्ष कुमार स्वामी द्वारा बतौर उद्घाटन दिये गये भाषण का। पूरी रिपोर्ट देने की जगह हम यहां उस उद्घाटन भाषण का अविकल अनुवाद दे रहे हैं।)
साथियों,
ओपेन वेन्स आफ लैटिन अमरीकाः फाइव सेंचुरी आफ पाइलेज आफ द कांटीनेंटके लेखक एडुआर्डो गेलयानो ने लिखा था यथार्थ, नियति नहीं होता, एक चुनौती होता है। हम इसे स्वीकार करने के लिए अभिशप्त नहीं हैं।

समूची दुनिया के लोग और देश वित्तीय पूंजी के नव-उदारवादी नीतियों द्वारा लादे गए यथार्थ को चुनौती दे रहे हैं, उसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

लैटिन अमरीका की गुलाबी लहरके बाद अब यूरोप का नंबर है। ग्रीस में सत्ता-परिवर्तनने उल्टी दिशा ले ली है। स्पेन के लोग सम्मान के साथ खाना, नौकरी और छत की मांग कर रहे हैं और यह दिखाने के लिए कि कटौती बहादुर सरकारके आखिरी दिन आ चुके हैं, टिक-टैक टिक-टैक की धुन गा रहे हैं। पुरानाऔर नया’, दोनों यूरोप कटौतियों के खिलाफ जनपक्षधर बदलावों की लड़ाई के अखाड़े में बदल रहे हैं। लैटिन अमरीका का साम्राज्यवाद-विरोधी जनपक्षधर जुलूस जारी है। अमरीका को क्यूबा से समझौते में जाना पड़ रहा है। कुछ सालों पहले अमरीका में ऋणग्रस्तता न सिर्फ जिंदगी की गुणवत्ता को बेहतर बनाने की शर्त बन गई, बल्कि जिंदगी की मूलभूत चीजों के लिए भी कर्जे की जरूरत पड़ने लगी। हर तरह की संपत्ति और आमदनी को पूंजीखोर कर्ज के कंबल से ढँकने लगे। नतीजे में आज की तारीख में अमरीका में पाँच करोड़ लोग छात्र-कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं।   

99 फीसदी के खिलाफ 01 फीसदी आक्यूपाई आंदोलन से जो जन-ऊर्जा निकली थी उसने अपना रंग दिखाया और पूरे अमरीका में न्यूनतम मजदूरी 15 डालर प्रति घंटे की मांग के आंदोलन फैल गए। यूरोप में न्यूनतम मजदूरी और आमदनी में गैर-बराबरी को कम करने के मुद्दों पर आंदोलन हो रहे हैं। एशिया में इन्डोनेशिया जैसा देश, जहां एक समय में कम्युनिस्टों और उनके समर्थकों का बदतरीन नरसंहार किया गया, कुछ दशकों बाद अब जकार्ता और दूसरे शहरों की सड़कों पर न्यूनतम मजदूरी की मांग को लेकर लाखों मजदूरों के जबर्दस्त आंदोलन का गवाह है। लगातार न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के बाद भी चीन में मजदूरी और सेवा-स्थितियों को लेकर 2014-2015 में ढेरों छोटी-छोटी हड़तालें हुईं।  
 
वित्तीय पूंजी ग्रीस को पेंशन, जन-रोजगार और सार्वजनिक क्षेत्रों में बड़ी कटौती करने को बाध्य करने की कोशिश कर रही है पर ग्रीस के लोग इस षड्यंत्र को चकनाचूर करने के लिए कमर कसे हुए हैं। वे दिखा देना चाहते हैं कि कोई भी कर्जदार देश कड़े कटौती उपायोंका विरोध कर के ग्रीस के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है। 
   
दुनिया की आर्थिक हालत में भी बदलाव आ रहा है। ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और दक्षिण अफ्रीका महासंघ) के अलावा चीन, सिल्क रोड पहलकदमी ले रहा है और शंघाई को-आपरेशन एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) जैसे प्रयोग कर रहा है। 500 करोड़ रूपये की प्रारम्भिक पूंजी के साथ शुरू हुई इस पहल में चीन ने 500 करोड़ रूपये और लगाने का वादा किया है। दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंग्डम, फ्रांस, इटली, स्विट्जरलैंड, लकजेमबर्ग और जर्मनी जैसे अमरीका के दोस्त कतार बांधकर एआईआईबी की पहल में शामिल होने को बेताब हैं। अपने गुस्से को बमुश्किल छुपाते हुए अमरीका का इस पहल पर कहना था कि हम चीन की बढ़ती दखलंदाजी पर लगातार नजर रखे हुए हैं। उभरती हुई ताकत के लिहाज से यह तरीका अच्छा नहीं है।

अमरीका के नेतृत्व में चल रहे आतंक के खिलाफ युद्धने तालिबान, अल कायदा एयर आईएसआईएस जैसे भस्मासुर पैदा किए हैं। लोग सीरिया और लीबिया छोड़कर भाग रहे हैं। 2014 में 3500 लोगों की जिंदगी और उनके सपने मेडिटरेनियन समुद्र की गहराईयों में दफन हो गए। 2015 में 1500 लोग हलाक हुए। यूरोप को आंतरिक मंदी की सनक से बाहर निकालना होगा, दृढ़ता से इसके अनचीन्हे भय का सामना करते हुए लोगों को इस भंवर से बाहर निकालना होगा।

सुनामी, बाढ़ और भूकंप और इन सबसे ज्यादा खतरनाक बहुदेशीय आपदा साम्राज्यवाद, से लड़ने के लिए दक्षिण एशियाई देश एकताबद्ध हो रहे हैं।

भयानक आर्थिक संकट, अनवरत वैश्विक युद्ध, बढ़ते पर्यावरणीय संकट आतंकवाद के कसते शिकंजे और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप अमरीका की अगुवाई में चल रही नव-उदारवादी नीतियों के फल हैं। दुनिया भर में जनांदोलनों और लोकप्रिय प्रतिरोधों में अभिव्यक्त होने वाले मजदूर और पूंजी के बीच के संघर्षों और वित्तीय पूंजी की तानाशाही को चुनौती देने वाले देशों से इस नव-उदारवादी हमले का जवाब दिया जा रहा है।

भारत में एक साल बीतते न बीतते मोदी सरकार का रास्ता कठिनतर होता जा रहा है। लोग यह बात मानने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर में कुछ अंकों के उतार-चढ़ाव से देश का विकास नापा जा सकता है। भारत को धीमी चाल से चलने वाले हाथी की जगह मोदी शिकार की ताक में निकले शेर की तरह दिखाना चाहते हैं। मेक इन इंडियाऔर कुछ नहीं, हमारे प्यारे देश के प्राकृतिक और मानवीय संसाधन की लूट के लिए पूंजी को खुला न्योता है, जमीन और श्रम अधिकारों पर हमला है, खाद्य सुरक्षा पर हमला है। मेक इन इंडियाऔर कुछ नहीं, लोगों को बेदखल कर कुछ लोगों के संपत्ति बटोरने का जाल है।

यह सही है कि नव-उदारवादी एजेंडा पिछले कुछ दशकों से जारी है पर मोदी सरकार ने इस एजेंडे को लागू करने में गुणात्मक और मात्रात्मक बदलाव किए हैं। सरकार पाँच एकड़ से कम जोत वाले किसानों को खेती छुड़वाने की उतावली में है, मध्यवर्ग से सब्सिडी (राहत) छोड़ने को कह रही है। सरकार चाहती है कि लोग उससे कोई आशा न रखें। जमीन अधिग्रहण के लिए वह ग्राम सभा के अस्सी फीसदी लोगों की सहमति और सामाजिक प्रभाव के अध्ययन के प्रावधान हटाना चाहती है।

यह सरकार उजाड़ने और विध्वंस करने में व्यस्त है। बाबरी मस्जिद को जमींदोज करने वाली ताकतें ही आज सार्वजनिक क्षेत्र, योजना आयोग, सौदा करने की सामुदायिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं को जमींदोज कर रही हैं। भारत के रेल, रक्षा और वित्त जैसे क्षेत्रों को कमजोर कर रही हैं। मौजूदा श्रम कानूनों को तबाह करते हुए नए मजदूर-विरोधी कानून बना कर यही ताकतें मजदूर-अधिकारों के खिलाफ घोषित युद्ध छेड़े हुए हैं।    

दरअसल मेक इन इंडियाका मतलब देशी और विदेशी कोरपोरेटों के लिए रक्षा-उत्पाद क्षेत्र को खोलना है। अनिल अंबानी ने मोदी का हवाला देते हुए कहा कि देश में आंसू गैस तक नहीं बनती, इससे वे बड़े दुखी थे। लेकिन आंसू गैस के न बनने पर आंसू बहाने की जरूरत अब न अंबानी को है न मोदी को क्योंकि अब रक्षा उत्पादों की मिठाई का हिस्सा अंबानी, टाटा और महिंद्रा जैसी कंपनियों को मिलने वाला है। अनिल अंबानी तीन सी (सीबीआई, सीवीसी और सीएजी) के खिलाफ हल्ला बोल रहे हैं। इससे भारत में अनियंत्रित पूंजीवादी लूट की भविष्य-दिशा का पता चलता है। मोदी सरकार अमरीका और इजराइल से हथियार और युद्ध के साजो-सामान खरीदती है, अगले दिन फ्रांस से 36 रफाएल युद्धक विमान खरीदने के समझौते पर दस्तखत करती है और इस तरह खुद के ही मेक इन इंडियाका भी मजाक उड़ाती है। 

रघुराम राजन और वित्तीय जादूगर अरविंद सुब्रमणियम वित्तीय क्षेत्र की चापलूसी में एक दूसरे को पीछे छोड़ देने की मुहिम में लगे हैं। अरविंद सुब्रमणियम का कहना है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण भारतीय अर्थव्यवस्था के गले की फांस है, वहीं दूसरी तरफ उनके जोड़ीदार राजन साहब फरमाते हैं कि इस (बैक राष्ट्रीयकरण) परंपरा को उलटना ही रिजर्व बैंक का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यभार है।

चूंकि श्रम संविधान की समवर्ती सूची का विषय है और राज्य सरकारें निवेश हासिल करने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर रही हैं, इसलिए मोदी सरकार, राज्य सरकारों के साथ मिलकर श्रम कानूनों पर हमले कर रही है। हमलावरों के इस गिरोह का अगुआ राजस्थान है। राजस्थान ने ट्रेड यूनियन्स ऐक्ट, इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स ऐक्ट, कांट्रैक्ट लेबर (एबालीशन एंड रेगुलेशन) ऐक्ट और फैक्ट्री ऐक्ट में संशोधन कर दिया है। केंद्र सरकार ने स्माल फैक्टरीज बिललाते हुए एक ही वार में चालीस से कम कामगारों वाली फैक्ट्रियों को चैदह श्रम कानूनों से मुक्त कर दिया। संशोधित अप्रेंटिसेज ऐक्ट एक और बानगी है कि सरकार नियमित स्थायी कर्मचारियों के साथ क्या करने की कोशिश कर रही है।

लोकतंत्र पर शातिर हमले हो रहे हैं।मोदी ने उच्चतम न्यायालय से कहा कि वह पांच-सितारा कार्यकर्ताओं के सामने न झुके। यह कहते हुए मोदी उच्चतम न्यायालय पर पोशीदा दबाव डाल रहे हैं कि जिन मामलों में सरकार चाहती है, उनपर न्यायालय उसका साथ दे- मसलन तीस्ता शीतलवाड़ की जमानत की नामंजूरी और कारपोरेट घोटालों के मामले पर सुस्ती। गुजरात सरकार का कंट्रोल आफ टेररिज्म एंड आर्गनाइज्ड क्राइम्स अध्यादेश टाडा और पोटा का नवेला संस्करण है। इस विधेयक के मुताबिक बगैर आरोप के किसी को 180 दिनों के लिए गिरफ्तार रखा जा सकता है। इस कानून का पालन करने के प्रयोजन से और नेकनीयती से किए गए किसी भी काम पर मुकदमा नहीं चल सकता। इस कानून के चलते पुलिस के स्वीकार करने से पहले ही अपराध स्वीकार हो जाता है।

अल्पसंख्यकों पर व्यवस्थित हमले हो रहे हैं। हिंदुत्ववादी ताकतों ने माहौल खराब करके दलितों और महिलाओं पर हमलों को प्रोत्साहित किया है। अन्यकरण’, इस्लाम का दानवीकरण और मुसलमानों का चुन-चुन कर शिकार करना इनके कुछ प्रभावी हथियार हैं। संघर्षशील जनता की एका को तोड़ने के लिए भी इस उन्मादी सांप्रदायिकता का इस्तेमाल किया जा रहा है। कार्पोरेट-सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों के इस रथ को रास्ते में ही ध्वस्त कर देने की जरूरत है।

संघर्षशील ताकतों के लिए उभरती स्थितियां संभावना से भरी हुई हैं। आम अवाम ने इस सरकार की तुक बरतानवी कंपनी राज से मिलानी शुरू कर दी है, लोग इसे अदानी-अंबानी और अमरीका की सरकार कह रहे हैं। अच्छे दिनऔर काला धन वापस लानेके इस सरकार के वायदे जनता के साथ क्रूर मजाक साबित हुए हैं। दिल्ली चुनावों में भाजपा को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। कोयला मजदूरों, बैंककर्मियों और बीएसएनएल कर्मचारियों ने सफल हड़तालें कीं। पूरे देश में मानद और ठेका कर्मचारी प्रतिरोध के रास्ते पर हैं। यह सब कामगार जनता के लड़ाकू मन-मिजाज के लक्षण हैं।

पर हम वामपंथी ताकतों के चुनावी प्रदर्शन में गिरावट भी देख रहे हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर उभरते हुए नौजवान भारत और वामपंथ में कोई संबंध नहीं बन पा रहा है। आधुनिक दुनिया ने कल्पनातीत दौलत बनाई है। हर आदमी के लिए तकनीक ने इस दौलत को देख पाना आसान बना दिया है। यह दौलत सामाजिक उत्पादन का फल है। जरूरतें और इच्छाएं अपनी प्रकृति में सामाजिक होती हैं। लोग बेहतर जिंदगी चाहते हैं। यह चाहना बहु-आयामी होता है। ऐसे में ट्रेड यूनियनों को सामाजिक भूमिका निभानी होगी। उनका लोकतांत्रीकरण करना होगा। मजदूरों का राजनीतिकीकरण करना होगा।

पूंजीवादी पुनर्गठन के कारण मजदूर वर्ग की संरचना में बदलाव आया है। इसके कारण नई चुनौतियां खड़ी हुई हैं। इस मौके पर इन चुनौतियों को स्वीकार करते हुए विकसित होने के लिए ट्रेड यूनियन आंदोलन को बहुत कुछ करना होगा। ट्रेड यूनियन आंदोलन की संकीर्णता को तोड़ने के लिए नए विचार और नई पहलकदमियां बेहद जरूरी हैं। नए औद्योगिक क्षेत्रों और इलाकों पर ध्यान केंद्रित करते हुए मजदूरों की नई श्रेणियों को संगठित करना होगा। युवा कैडरों और नेताओं की भारी तादात को आकर्षित और विकसित करने का कार्यभार हमारे कंधों पर है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों तक पहुंचने के लिए सामाजिक आयामों के साथ लगातार और प्रतिबद्धता के साथ इलाकावार काम करना होगा।

2013 की फरवरी में 20 और 21 तारीख को मजदूर वर्ग की हड़ताल संप्रग सरकार को हराने वाले कारणों में से एक थी। एक बार फिर मजदूर वर्ग द्वारा वैसी ही हड़ताल करने का समय आ गया है। एक्टू निश्चित ही इस दिशा में आगे बढ़ेगा। उम्मीद है और भी केंद्रीय ट्रेड यूनियनें इस दिशा में सोच रही होंगी।

मजदूर वर्ग को किसानों और लोकतांत्रिक ताकतों तक पहुंचाना होगा। आल इंडिया पीपुल्स फोरम (एआईपीएफ) में शामिल एक्टू अपने नौवें सम्मेलन से इस नारे को बुलंद करता है- गांव-शहर से उठी आवाज ! नहीं चलेगा कंपनी राज !!

तबाही और बरबादी के धुंधलके में से हम एक जीवंत, गतिशील, जिम्मेदार और सक्रिय मजदूर वर्ग का आंदोलन रचेंगे।

मैं अपनी बात गैलियानों के इन शब्दों के साथ समाप्त करता हूं, ‘‘मनुष्य जाति के इतिहास में तबाही की हर कार्यवाही का देर-सबेर जवाब मिला है, वह जवाब है रचना।

(ऐक्टू के 9वें राष्ट्रीय सम्मेलन में दिया गया अध्यक्षीय वक्तव्य, 4-5 मई 2015)