Friday 13 February 2015

प्रो. तुलसी राम को जन संस्कृति मंच की ओर से श्रद्धांजलि

सामाजिक-आर्थिक बराबरी और न्याय के लिए जारी
संघर्षों के अथक योद्धा थे प्रो. तुलसी राम- जन संस्कृति मंच


प्रो. तुलसी राम का असामयिक निधन भारत की तर्कशील भौतिकवादी बौद्धिक परंपरा तथा वाम-दलित आंदोलन के लिए अपूरणीय क्षति है। 65 साल की उम्र में उनका आज 13 फरवरी को फरीदाबाद के राकलैंड अस्पताल में निधन हो गया। सांप्रदायिक-धार्मिक हिंसा, अवैज्ञानिकता और सामाजिक-आर्थिक भेदभाव संबंधी राजनीति, सामाजिक-सांस्कृतिक धारणाओं, विचारों और संस्कारों के खिलाफ वे आखिरी दम तक संघर्ष करते रहे।

प्रो. तुलसी राम डायबिटीज की बीमारी से गंभीर रूप से ग्रस्त थे और पिछले कई वर्षों से नियमित अंतराल पर डायलिसिस की विवशता के बावजूद वे न केवल लेखन के क्षेत्र में सक्रिय थे, बल्कि देश के विभिन्न इलाकों में लगातार यात्राएं करते हुए सभा-गोष्ठियों, अकादमिक बहसों में शामिल होकर हमारे समय की जनविरोधी राजनीतिक-सांस्कृतिक और आर्थिक ताकतों के खिलाफ तीखा वैचारिक संघर्ष चला रहे थे।

तुलसी राम जी का जन्म 1 जुलाई 1949 को उ.प्र. आजमगढ़ जनपद के धरमपुर गांव में हुआ था। अपनी आत्मकथा में उन्होंने अपने परिवार, गांव के सामाजिक परिवेश और अपने प्रारंभिक संघर्ष के बारे में विस्तार से लिखा है कि किस प्रकार वे आजमगढ़ नगर और फिर बी.एच.यू., बनारस पहुंचे। बी.एच.यू. में कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया और ए.आई.एस.एफ. से जुड़कर वामपंथी राजनीति के अंग बने। सी.पी.आई. की राजनीति के साथ अपने स्याह-सफेद अनुभवों को जीने की प्रक्रिया में वे जे.एन.यू. आए और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शोध के उपरांत जे.एन.यू. में ही प्रोफेसर नियुक्त हुए।

प्रो. तुलसी राम का जीवन संघर्ष आजादी के बाद के भारत में दलित वर्ग के ऊर्ध्वगामी जययात्रा की दास्तान की तरह है। तुलसी राम आजाद भारत में पैदा हुए दलितों की पहली पीढ़ी के उन लोगों में से रहे हैं, जो अपमान-अन्याय का दंश झेलते हुए अपने संघर्ष की बदौलत भारत के सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों में पहुंचे। तुलसी राम की आत्मकथा के दूसरे खंड ‘मणिकर्णिका' में देखा जा सकता है कि किस प्रकार बी.एच.यू. जैसा उच्च शैक्षणिक संस्थान तुलसी राम को गढ़ता है, उन्हें प्रभावित करता है और खुद तुलसी राम विश्वविद्यालय की वामपंथी छात्र-राजनीति में शामिल होकर विश्वविद्यालय की परिसर-संस्कृति को बदलने में अपनी भूमिका निभाते हैं।

प्रो. तुलसी राम के चिंतन और अध्ययन और सक्रियता का रेंज बहुत ही व्यापक रहा है। वामपंथी राजनीति से जुड़े रहने के कारण वे मार्क्सवाद और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, खासकर सोवियत संघ के दौर की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के गंभीर अध्येता रहे। मार्क्सवाद को समझने-पढ़ने के समानांतर उन्होंने बौद्ध दर्शन और अंबेडकरवाद का अध्ययन किया और अपने राजनैतिक-दर्शन में आत्मसात किया। उल्लेखनीय है कि अंबेडकरवादी चिंतन में निष्णात होने के साथ-साथ वह अंतिम सांस तक कम्युनिस्ट बने रहे। कम्युनिस्ट पार्टी के कार्य-व्यवहार में जाति के प्रश्न को उन्होंने विभिन्न मंचों पर उठाया। वे इस सवाल को मार्क्सवादी सांगठनिक प्रणाली के भीतर आलोचना-आत्मालोचना के माध्यम से हल करना चाहते थे। यही कारण है कि कई भूतपूर्व कम्युनिस्टों और वामपंथी विचारधारा या पार्टी के नजदीक रहे बुद्धिजीवियों की तरह उन्होंने कभी कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ सार्वजनिक बयानबाजी नहीं की, न ही अपनी आलोचनाओं को सार्वजनिक मंच पर व्यक्त किया।

आज जब भारत में दलित आंदोलन गंभीर संकट से गुजर रहा है, दलित आंदोलन और चिंतन के भीतर गहरे आत्ममंथन और आत्मसंघर्ष का दौर चल रहा है, तब तुलसीराम जी की कमी हमें बहुत खलेगी। आज के इस दुविधा भरे समय में तुलसीराम जी का मार्ग निर्देशन और वैचारिक नेतृत्व की हमें बहुत जरूरत थी। तुलसी राम जी वर्तमान दौर की दलित राजनीति के अवसरवाद और सत्तापरस्ती के सबसे बड़े आलोचक थे। वे कहते थे कि दलित आंदोलन के लिए यह सबसे खतरनाक है कि दलित जातिवादी हो जाए और बसपा की राजनीति के विषय में वे कहते थे कि बसपा दलितों को जातिवादी बना रही है। 2014 के लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद नरेंद्र मोदी के रूप में कारपोरेट-फासीवाद की सत्ता के आरोहण के बाद प्रो. तुलसीराम ने ‘जनसत्ता’ में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने दलितों के जातिवादी और सांप्रदायिक होते जाने के खतरे की ओर इंगित किया था। प्रो. तुलसी राम की आस्था मार्क्सवाद और अंबेडकरवाद में समान रूप से थी। भारतीय परिप्रेक्ष्य में मार्क्सवाद को लागू करने तथा समाजवादी समाज निर्माण की प्रक्रिया में अंबेडकर की भूमिका को वे महत्वपूर्ण मानते थे।

दलित साहित्य के संवर्धन और संवेदनात्मक विकास में प्रो. तुलसीराम की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने दलित लेखक संघ के अध्यक्ष के बतौर भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दलित साहित्य को संपूर्ण मानवता की मुक्ति के साहित्य के रूप में उन्होंने व्याख्यायित किया। दलित साहित्य की व्यापक स्वीकार्यता और उसे भारतीय साहित्य का अनिवार्य हिस्सा बनाने के लिहाज से उनके योगदान को कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- ‘‘प्रश्न सवर्णों से घृणा करने का नहीं है। वर्णव्यवस्था से घृणा करने का है। इससे तो सिर्फ दलितों को ही नहीं, सवर्णों को भी घृणा करनी चाहिए। सवर्णों से घृणा न बुद्ध का लक्ष्य रहा है न बाबा साहब का। जहां तक दलित लेखन के लिए दलित ही होने की बात है तो मैं इससे सहमत नहीं हूं।’’

प्रो. तुलसी राम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया' और ‘मणिकर्णिका’ अपनी रचनात्मक विशिष्टता, सरलता-सहजता और प्रामाणिक यथार्थ के कारण हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर बन चुकी है। इन पुस्तकों ने दलित रचनाशीलता के नए निकष बनाए हैं। एक वामपंथी होने के नाते प्रो. तुलसी राम आजीवन साम्राज्यवाद के विरोध में रहे। ‘सीआईए: राजनीतिक विध्वंस का अमीरीकी हथियार’, ‘द हिस्ट्री आफ कम्युनिस्ट मूवमेंट इन ईरान’, ‘आइडियोलाजी इन सोवियत ईरान रिलेशंस’ तथा ‘अंगोला का मुक्ति संघर्ष’ आदि उनकी अन्य प्रमुख किताबें हैं। प्रो. तुलसी राम ने ‘अश्वघोष’ पत्रिका का संपादन भी किया। इस पत्रिका का नाम भी भारत की तर्कशील दार्शनिक और साहित्यिक परंपरा के साथ उनके अटूट रिश्ते को जाहिर करता है।

गैरबराबरी, शोषण, उत्पीड़न-दमन के खिलाफ लड़ने और एक बेहतर मानवीय दुनिया बनाने के लिए संघर्ष करने वाले लोगों और संगठनों के लिए प्रो. तुलसी राम का निधन एक बहुत बड़े आघात की तरह है, जिससे उबरने में समय लगेगा। जन संस्कृति मंच की ओर से प्रो. तुलसी राम को विनम्र श्रद्धांजलि।

- रामायन राम


जन संस्कृति मंच की ओर से
राष्ट्रीय सहसचिव सुधीर सुमन द्वारा जारी

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