Saturday 28 May 2016

भगवतीचरण वोहरा : एच.एस.आर.ए. का मस्तिष्क



शहादत दिवस 28 मई पर विशेष

भगवतीचरण वोहरा, दुर्गा भाभी और उनका पुत्र शची 
भगवतीचरण वोहरा ने भगतसिंह के साथ मिलकर भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को सैद्धांतिक-वैचारिक तौर पर समाजवादी दिशा देने में अहम भूमिका निभाई थी। हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ के इस कामरेड की शादी छोटी उम्र में ही हो गई थी। उनके पिता आगरा से लाहौर आ गए थे। 1921 के सत्याग्रह में उन्होंने काॅलेज छोड़ दिया। आंदोलन वापिस होने पर उन्होंने नेशनल कालेज, लाहौर में दाखिला लिया और वहीं पर बी.ए. की डिग्री ली, साथ ही क्रांतिकारी आंदोलन में दीक्षा भी। भगतसिंह की गिरफ्तारी के बाद यशपाल और भगवतीचरण वोहरा ने वायसराय की ट्रेन उड़ाने का प्रयास किया था जिसमें आंशिक सफलता मिली थी। भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना के सिलसिले में रावी तट पर बमों के परीक्षण के दौरान 28 मई 1930 को हाथ में ही बम फट जाने से उनका देहांत हुआ था। यहां प्रस्तुुत है उनके साथी जयदेव कपूर का संस्मरण, जिसे हमने समकालीन जनमत के मई 2016 अंक में डाॅ. भगवानदास माहौर द्वारा संपादित काकोरी शहीद स्मृति पुस्तक से साभार प्रकाशित किया है - सं. 

सन, 1930 के मई मास का अंत था। भरी दुपहरी, ऊपर आकाश में सूरज जल रहा था। नीचे धरती पर लू की लपटें लहरा रही थीं। असह्य गर्मी थी। गर्द और गुबार भरे आंधी-अंधड़ ने राह चलना दूभर कर रखा था। अधिकतर दुकानें या तो बंद थीं या फिर उनके द्वारों पर भारी-भारी पर्दे पड़े हुए थे। इंसान तो दूर रहा, जानवर तक घर से बाहर निकलने का साहस खो बैठे थे। सड़कें सब सुनसान थीं। दोनों किनारों पर चुपचाप खड़ी हुई इमारतों की ऊंची-ऊंची दीवारें सायं-सायं कर रही थीं। कहीं किसी प्रकार की कोई जुंबिश नजर न आती थी। एक अजीब उदासी, मरघट जैसी मुर्दनी ने उस दिन लाहौर नगरी को ढंक लिया था। 

सहसा तीन नौजवान, बोस्टर्ल जेल के समीप बहावलपुर रोड स्थित एक बंगले से बाहर निकले। एक बार खोज करती हुई पैनी-पैनी आंखों से उन्होंने चारों ओर देखा, और फिर सड़क पर चल दिए। उनकी गंभीर मुखमुद्रा, अंतर में किसी भीषण निश्चय की परिचायक थी। वे चले जा रहे थे, अपने भारी पगचाप से सड़क का सीना रौंदते हुए, गर्द-गुबार के तूफान को चुनौती देते हुए, तीनों चुपचाप, सिर झुकाये हुए, किसी गहरे चिंतन में लीन। आपस में भी वे एक-दूसरे से बोलते न थे। चारों ओर की नीरव स्तब्धता और इन अनोखे मुसाफिरों का गहरा मौन भंग करते हुए सड़क के किनारे किसी वृक्ष की छांह में हांफता पड़ा हुआ कोई कुत्ता कभी भौंक उठता था। तब वे चौकन्ने होकर चारों ओर देख लेते, और पुनः उनके पग आगे बढ़ जाते, अपने पूर्व निश्चित और निर्दिष्ट पथ पर। चलते-चलते रास्तें ने भी उनका साथ छोड़ दिया। कोलतार और पत्थर की सड़क समाप्त हो गई। अब उनके सामने आगे दूर तक फैला हुआ रेतीला मैदान, जिसकी चमक से आंखें चकाचौन्ध हो जाती थी। एक क्षण के लिए वे ठहरे। एक बार आंख उठाकर उन्होंने ऊपर देखा। आकाश में अब भी वही जलता हुआ सूरज, सामने बालू का विस्तार। और फिर कुछ सोचकर वे चल दिए, उस बालू में अपने पदचिह्न पीछे छोड़ते हुए। चलते-चलते वे तीनों बालू का मैदान भी लांघ गए। अब उनके सामने घना जंगल, और समीप ही उसके बीच से बहती हुई रावी नदी, उसका भयावह चीत्कारपूर्ण प्रवाह।
जयदेव कपूर 

अभी तक वह दूसरों के बनाए या बताए हुए रास्ते पर चल रहे थे। अब आगे उन्हें अपना रास्ता स्वयं बनाना था। ऐसे में तेजी से साथ बढ़कर आगे हो लिए भगवतीचरण। उनके पीछे थे सुखदेव राज, और सबके पीछे बच्चन (वैशम्पायन)। ऊंचे-नीचे टीलों, लताओं-वृक्षों के झुरमुटों के बीच में से, टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता बनाते हुए, वे तीनों अब भी चलते ही चले जा रहे थे। घने जंगल के बीच सुविधाजनक एक स्थान देखकर, सहसा भगवती भाई के कदम रुक गए। पीछे आने वाले साथियों को संबोधित करते हुए बोले: ‘सावधान साथियो! पीछे हट जाओ। अब मैं इस बम का परीक्षण करने जा रहा हूं।’’ यह कहकर उन्होंने अपने झोले से लोहे का अंडाकार बम बाहर निकाल लिया। रबड़ की इलास्टिक डोरी खींचकर घोड़ा चढ़ा दिया और बम के मुंह पर मरकरी फुलमिनेट की टोपी फंसा दी। दो-एक बार उसे उलट-पुलटकर देखा, फिर पीछे साथियों से कहा: ‘‘इसका घोड़ा तो बहुत ढीला है। आज इसे रहने दिया जाए।’’ तुरंत थोड़ी दूर से सुखदेव राज बोल उठा: ‘‘तुम्हें भय लगता है तो लाओ मुझे दो।’’ भगवती भाई जोरों से हंस पड़े, बोले: ‘‘जिस दिन इस रास्ते में पहला कदम रखा था, उसी दिन मौत का भय, गहराई में, बहुत गहराई में दफना आए थे, सुखदेव! क्या बात करते हो? अच्छा पीछे हट जाओ!’’ और इतना कहते हुए उनका बांयां पैर आगे बढ़ा, दाहिना हाथ आकाश में अर्धवृत्ताकार बनाता हुआ लहराया और उन्होंने बम फेंक दिया।

हाथ से बम का छूटना था कि तत्क्षण भीषण विस्फोट हुआ। जंगल का कोना-कोना गूंज उठा। धरती कांप उठी, वृक्ष हिलने लगे। छोटे-छोटे जानवर भय से भाग चले। पक्षीगण जोर-जोर से चिल्लाते, शोर मचाते हुए, आकाश में उड़ने लगे। और इधर भगवती भाई का भारी-भरकम शरीर भूमि पर गिर गया। एक क्षण के लिए तो समझ में न आया- क्या हो गया, कैसे? और फिर तुरंत ही झपटकर बच्चन ने अपनी बांहों में भाई को भर लिया। फिर आंसू भरी आंखों से देखा उसने, भगवती भाई का एक हाथ कलाई के पास से कट गया था। दूसरे हाथ की उंगलियां उड़ गई थीं। चेहरे पर कई जगह गहरे घावों से रक्त बह रहा था। पेट में बड़े-बड़े छेद हो गए थे, जिनसे लहू की फुहारें निकल रही थीं। आंतें कुछ बाहर निकल आई थीं। सारा शरीर क्षतविक्षत, लहूलुहान। लेकिन मुख पर वही तेज, वही सदैव हंसती हुई सौम्य शांत चेतना अभी जाग्रत थी। बोले वह: ‘‘यही दुख है, भगतसिंह के छुड़ाने में सहयोग न दे सकूंगा।...काश, यह मृत्यु दो दिन बाद होती!’’ इतना कहते हुए वह बेहोश हो गए। 

बच्चन दौड़कर नदी के जल से कपड़ा भिगा लाया। भीगे कपड़े से मस्तक पोंछा, जल की कुछ बूंदें मुख में डाली, तो भैया ने फिर आंखें खोल दी। धीमे स्वर में रुक-रुककर कहने लगे: ‘‘मैं जा रहा हूं। मेरे मरने की खबर पुलिस को न मिलने पाए।...अपना आंदोलन मजबूती से चलाते रहना....’’ और उनके अंतिम शब्द थे: ‘‘मरने से पहले यदि आजाद भैया से मुलाकात हो सकती....’’ और भी न जाने क्या और कितना कहना चाहते थे। लेकिन, दिल की बातें दिल ही में रह गई, जबान पर न आ सकी। और वह चले गए, सदैव के लिए चले गए, हमें और हमारी दुनिया को छोड़कर। 

कहते हैं जीवन को समझना है तो मृत्यु को देखो। मृत्यु में जीवन का समस्त दर्शन झिलमिलाता है। भगवती भाई की मृत्यु के क्षणों में, उनके अंतिम दो शब्द उनकी जीवन की सारी कहानी कह गए। मृत्यु की विकराल विभीषिका के बीच वह हमारा भाई कितना शांत था, कितना निर्भय! कालीदह के विषधर के फणों पर नृत्य करते हुए कृष्ण की भांति! मृत्यु उन पर हावी न हो पाई, वह मृत्यु पर हावी रहे। अंतिम क्षणों में उन्होंने अपनी प्रियतमा पत्नी दुर्गा देवी को याद नहीं किया। अपने सुंदर सुकुमार शची को याद नहीं किया। याद किया उन्होंने आजादी और इंकलाब के लिए लड़ने वाली अपनी पार्टी को, याद किया उन्होंने अपने सेनापति आजाद को। और अंतिम संदेश जो वह छोड़ गए, अपने साथियों के नाम, देश की कोटि-कोटि शोषित और सताई हुई जनता के नाम, वह भी यही था: ‘‘अपना आंदोलन मजबूती से चलाते रहना।’’ ऐसे थे हमारे भगवती भाई। ऐसी थी उनकी महान निष्ठा, उनकी एकाग्र साधना, अपने आदर्शों, सिद्धांतों के प्रति। उनका जीवन पूर्णरूपेण अर्पित था, उत्सर्ग था, आजादी और समाजवाद के लिए। इसके लिए वह जिये, इसके लिए वह मरे। 

उस दिन घने जंगल के बीच, निर्जन एकांत में हम अपने शहीद साथी के शव का समुचित सत्कार न कर सके। एक सफेद चादर में किसी तरह समेटकर उन्हें नदी तक ले गए। कुछ भारी-भारी पत्थर चादर के चारों खूंट से बांधकर, राष्ट्र की यह अमूल्य निधि रावी के अथाह जल को समर्पित कर आए। कोई सलामी का बाजा नहीं, कोई विदाई की धुन नही। हम किसी प्रकार की रस्म-अदाई तक न कर पाए। लेकिन भगवती भाई अपनी मनचाही कर गए। लोगों से, जो उनके बहुत निकट रहे हैं, सुना है कि जीवन के एकांत क्षणों में वह अक्सर गुनगुनाया करते थे : 

मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक,
मातृभूमि हित शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक। 

क्रांतिकारियों में भी भगवती भाई बहुत चमकने वाले रत्न थे। हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ के कमांडर आजाद थे तो भगवतीचरण सैद्धांतिक संघर्ष में अपना सानी नहीं रखते थे। ऐसे बहादुर और ऐसी सूझबूझ वाले नेताओं को पाकर कोई भी पार्टी चमक सकती थी। आश्चर्य नहीं, उस समय के समाजवादी प्रजातंत्र संघ अपनी अमिट छाप छोड़ गया है। 

और वे दिन भी क्या दिन थे। अवनी अंबर में जैसे आग बरस रही थी, सब ओर चिनगारियां बिखर रही थीं और एक-एक चिनगारी अंगार बनने जा रही थी। आजादी के दीवानों की अलमस्त टोली सिर से कफन बांधे हुए विदेशी शासन को चुनौती दे रही थी: ‘‘नहीं रखनी सरकार जालिम नहीं रखनी!’’ लाला लाजपतराय पर लाठी बरसाने वाला अंग्रेज कप्तान साण्डर्स लाहौर में दिन-दहाड़े शहर की सड़क पर गोली का निशाना बन चुका था। वायसराय की ट्रेन की नीचे बम-विस्फोट हुआ। चटगांव में सरकारी शस्त्रागार लूट लिया गया। गढ़वाली पल्टन के सूरमा सिपाही बगावत का झंडा बुलंद कर रहे थे। बंबई, अहमदाबाद, नागपुर के मजदूर बड़ी-बड़ी हड़तालें कर रहे थे। देश के किसान सामूहिक रूप से लगानबंदी करने जा रहे थे। कितनी महान क्रांतिकारी संभावनाएं भरी हुई थी उस समय और परिस्थिति में! 

विदेशी शासन ने भी दमन की संपूर्ण मशीनरी- सेना, पुलिस, जेल, अदालतें सब- अपने पूरे वेग से चालू कर दी थीं, आजादी के इस आंदोलन को कुचलकर खन के गड्ढे में डूबा देने के लिए। 

इधर देश के मध्यमवर्गीय राजनीतिक रहनुमा, क्रांति और उसके परिणामों से घबराने वाले नेता, जनता के आगे बढ़ते हुए कदम क्रांतिपथ से हटाकर सुधारवादी गलियों की ओर मोड़ देने के लिए प्रयत्नशील थे। ऐसे महान (?) नेता कभी भगत सिंह की तुलना अब्दुल रशीद से करते थे, कभी यतींद्रनाथ के बलिदान को ‘आत्मघात’ की संज्ञा देते थे, कभी गढ़वाली पल्टन के गोली चलाने से इनकार करने पर उन्हें ‘अनुशासनहीन’ कहकर ‘कर्तव्यविमुखता’ का दोषी ठहराते थे। उनकी दृष्टि में ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा एक ‘महान मूर्खता’ थी। आजादी और इंकलाब के लिए जीवन होम करने वाले नौजवान उनकी दृष्टि में ‘कायर’ थे। तभी तो ‘कल्ट आॅफ बम’ शीर्षक लेख लिखकर तथा लाहौर कांग्रेस के अवसर पर वायसराय को बधाई देते हुए, देश के क्रांतिकारियों की सार्वजनिक भर्त्सना के प्रस्ताव पास किए जा रहे थे, उनके कार्याें को ‘जघन्य’ घोषित करते हुए सर्वसाधारण जनता को उनसे दूर रहने और अलग रहने की ‘नेक सलाह’ दी जा रही थी। 

ऐसे समय में देश के राजनीतिक क्षितिज पर एक सितारा चमक उठा, जिसके प्रकाश ने कितनों को रास्ता दिखाया। उसने ब्रिटिश साम्राज्यशाही के दमन का मुंहतोड़ जवाब दिया, हिंदुस्तानी नौजवानों के हाथों में बम और पिस्तौल देकर उसने सुधार और समझौतापरस्त मध्यमवर्गीय नेताओं की खोखली राजनीति का पर्दाफाश किया, अपनी ओजमयी लेखनी और वाणी से उसने क्रांति का पथ प्रशस्त किया, देश के नौजवानों, मजदूरों और किसानों के लिए उसके द्वारा लिखित ‘नौजवान भारत सभा का घोषणापत्र’, ‘बम का दर्शन’ तथा अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों ने क्रांतिकारी आंदोलन का मार्ग-प्रदर्शन किया, उसकी जड़ें गहराई तक जनता के मानस में जमाईं, और आज भी वे आग के अक्षर हमारी रहनुमाई कर रहे हैं। ऐसा था हमारा साथी भगवतीचरण।

जन्म जुलाई 1902 में, आगरा में। प्रारंभिक शिक्षा आगरा तथा लाहौर में। सब प्रकार से सुखी और संपन्न परिवार। जीवनसंगिनी के रूप में ऐसा रत्न उन्होंने पाया जो कवि-कल्पना से भी परे था। असाधारण सौंदर्य और शालीनता के साथ-साथ असाधारण शौर्य और साहस का सामंजस्य- ऐसा आकर्षक व्यक्तित्व जो इस दुनिया में ढूंढने पर मुश्किल से मिलेगा। सबकुछ तो सहज ही उपलब्ध था भगवतीचरण को। नेशनल काॅलेज, लाहौर में इनके मित्र और सहपाठी थे भगतसिंह और सुखदेव। लाला लाजपत राय इनकी प्रतिभा के कायल थे और उनका विशाल पुस्तकालय इनके लिए सदैव खुला रहता था। सैद्धांतिक ज्ञान और विवेचन में, लेखक और वक्ता के रूप में, भगवतीचरण अपने सब साथियों में अद्वितीय थे। बृहत् अध्ययन और गंभीर चिंतन, शांत और सरल स्वभाव, सबको समेट कर चलने और चलाने की अद्भुत क्षमता, संगठन और सिद्धांतों के लिए सबसे आगे बढ़कर सदैव अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को उद्धत- इन्हीं गुणों के कारण वे अपने समय के सभी क्रांतिकारियों के भाई बन गए थे और इसी प्रकार दुर्गावती देवी भी सबकी भाभी बन गई थीं। भगवती भाई, उनका घर-परिवार, धन-संपत्ति सबकुछ पार्टी को अर्पण थे।...

1929-30 में लाहौर सेंट्रल जेल की फांसी की कोठरी में बंद भगत सिंह जल्लाद की रस्सी का इंतजार कर रहा था। बाहर पार्टी ने निश्चय किया कि जान पर खेलकर सरदार को जेल और पुलिस के पंजे से मुक्त कराना है, जो बड़ा जोखिम का काम था। गोलियां चलेंगी, बम फटेंगे, कुछ हमारे साथी मरेंगे, कुछ पुलिस के जवान मारे जाएंगे। पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों ने आग्रह किया कि पार्टी का ‘संचालक मस्तिष्क’ खतरे से बाहर रखा जाए। किंतु, भगवती भाई बिल्कुल सहमत न हुए। उनका प्रबल अनुरोध और आग्रह था कि वे इस लड़ाई की अगली कतार में रहेंगे। और वे अगली कतार में रहे भी। 

उनके जीवन को समझने और समझाने वाली अनेक घटनाओं में से एक स्मृतिपट पर सबसे अधिक उभरकर आती है। 1929 की जनवरी और मार्च में मेरठ तथा लाहौर षड्यंत्र के अभियोग में बहुत-से कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी नौजवान गिरफ्तार होकर जेल में बंद थे। भगवती भाई पर वारंट था। वह फरार हो गए। आगे-आगे वह भाग रहे थे और उनके पीछे पुलिस और खुफिया विभाग के हथियारबंद जवान। ऐसे समय में भगवती भाई से कहा गया कि वे रूस चले जाएं और इसके लिए साधन और सुविधाएं नियोजित की गईं। लेकिन भगवती भाई ने इनकार कर दिया। बोल वह: ‘‘आज देश की आजादी और इंकलाब के लिए मेरे खून की जरूरत है। मैं खून दूंगा, अपने देशवासियों के बीच रहकर खून दूंगा। मैं हरगिज बाहर नहीं आऊंगा।’’ और उन्होंने अपने खून की एक-एक बूंद क्रांति के लिए दी। 

(यह भगतसिंह के साथी जयदेव कपूर के लंबे स्मृति-लेख का थोड़ा संक्षिप्त रूप है। )

No comments:

Post a Comment