Friday, 12 August 2016

पत्रकार नेहा दीक्षित पर संघ- भाजपा तत्वों के हमले के खिलाफ जसम का बयान



पत्रकार नेहा दीक्षित और आउटलुक पत्रिका पर सारे मुकदमें वापस हों! 

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर संघ- भाजपा तत्वों के हमले के खिलाफ जन संस्कृति मंच का बयान

जहां पिछले दो सालों में कार्पोरेट मीडिया का एक अच्छा ख़ासा हिस्सा केंद्र की मोदी सरकार की हिमायत में सारी हदें पार कर जा रहा है, वहीं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने के तमाम प्रयासों को धता बताते हुए अनेक साहसी पत्रकारों और पत्र-पत्रिकाओं ने जोखिम उठाते हुए इसी दौर में साम्प्रदायिक तांडव को बेनकाब करने के अनुकरणीय उदाहरण भी पेश किए हैं. ‘गुजरात फाइल्स’ की लेखिका राना अय्यूब और आउटलुक से जुडी नेहा दीक्षित ऐसी ही पत्रकार हैं। 

अंग्रेज़ी की पत्रिका आउटलुक के 8 अगस्‍त, 2016 के अंक में छपी आवरण कथा ''ऑपरेशन बेबी लिफ्ट'' (हिंदी में प्रचलित/अनूदित ''बेटी उठाओ अभियान'') के सामने आने के बाद इस पत्रिका के प्रकाशक, संपादक समेत रिपोर्टर नेहा दीक्षित के खिलाफ़ भाजपा प्रवक्ता और गुवाहाटी उच्च न्यायालय के वकील बिजन महाजन, भाजपा अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के मोमीनुल अव्वाल और सहायक सोलीसीटर जनरल सुभाष चन्द्र कायल की शिकायत पर ‘साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने के आरोप में’ प्राथमिकी दर्ज कर दी गयी है। एक के बाद एक भाजपा और संघ प्रवक्ताओं ने इस आवरण कथा को लिखनेवाली पत्रकार और छापनेवाली पत्रिका के खिलाफ हमला बोला, लेकिन वे अबतक इस रिपोर्ट में प्रस्तुत एक भी तथ्य को काट नहीं सके हैं। ऐसे में प्राथमिकी दर्ज कराने से लेकर 'मानहानि' का दावा करते हुए संघ से जुड़े संगठनों और व्यक्तियों ने सोशल मीडिया में नेहा दीक्षित और आउटलुक पर हमला बोल दिया है। जन संस्कृति मंच इस हमले की कठोर भर्त्सना करता है।


तीन राज्यों (असम, गुजरात और पंजाब) से तथ्य संग्रह कर तीन महीने लगाकर 11,000 शब्दों में लिखी गयी की यह रिपोर्ट विस्तार से बताती है कि कैसे संघ से जुडी संस्थाओं के तत्वावधान में 31 नाबालिग आदिवासी बच्चियों को गुजरात और पंजाब ले जाया गया। बाल-अधिकार सुरक्षा कमीशन, [असम] बाल कल्याण कमेटी [कोकराझार] और राज्य बाल सुरक्षा सोसाईटी और चाइल्डलाइन [दिल्ली और पटियाला] जैसी संस्थाओं ने निर्देश दिया था कि इन बच्चियों को वापस भेजा जाये पर गुजरात और पंजाब की राज्य सरकारों से वरदहस्त पायी हुई संघ से जुडी इन संस्थाओं ने खुले-आम न केवल इन निर्देशों को हवा में उड़ा दिया, बल्कि उनके इस कृत्य में सर्वोच्च न्यायालय के 1 सितम्बर, 2010 के उस आदेश का भी उल्लंघन किया गया जिसके अनुसार मणिपुर और असम की सरकारों को यह निर्देश दिया गया था कि वे सुनिश्चित करें कि 12 साल से कम उम्र के बच्चों को पढाई के नाम पर राज्य के बाहर न ले जाया जाए। रिपोर्ट विस्तार से दिखाती है कि इन संस्थाओं के इस कृत्य में ‘जुवेनाइल जस्टिस एक्ट, 2000’ से लेकर बच्चों के अधिकार के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा पारित और भारत द्वारा अनुमोदित संकल्पों का भी उल्लंघन निहित है। नेहा दीक्षित की रिपोर्ट के अनुसार, “ सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद, असम सी.आई.डी. की रिपोर्ट के अनुसार 2012 से 2015 के बीच लगभग 5000 बच्चे लापता हैं। कार्यकर्ताओं को यकीन है कि यह संख्या लगभग उतनी ही है जितने बच्चे पढ़ाई या रोज़गार के बहाने अवैध सौदागरी (ट्रैफिकिंग) की भेंट चढ़े। इनमें से 800 बच्चे 2015 में गायब हुए।” नेहा दीक्षित की यह रिपोर्ट इन तथ्यों के अलावा पूर्वोत्तर के आदिवासियों के बीच संघ की कारगुजारियों, उससे जुड़ी ख़ास तौर पर राष्ट्र सेविका समिति, सेवा भारती, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आदि संस्थाओं के क्रिया-कलाप को व्यापक सर्वेक्षण, अनेक साक्षात्कारों और तीक्ष्ण विश्लेषण के ज़रिए उजागर करती है। 

आश्चर्य नहीं कि इस मामले की जांच करने की बजाय पुलिस ने मामला उठाने वालों के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है। जब जब भी कोई खोजी पत्रकार, बौद्धिक या कलाकार सांप्रदायिक रणनीतियों, अल्पसंख्यकों पर हमलों, आदिवासियों के हिन्दूकरण जैसे मुद्दों में संघ से जुड़े तत्वों की भूमिका को प्रामाणिक ढंग से बेनकाब करने का साहस करता है, उसे कानूनी और गैर-कानूनी तरीकों से प्रताड़ित करने का अभियान चल पड़ता है। नेहा दीक्षित की रिपोर्ट पर ‘साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने का आरोप’ यह कहने के बराबर है कि अपराध करनेवालों से ज़्यादा दोषी अपराध को जनहित में उजागर करने वाले लोग हैं। ज्ञातव्य है इससे पहले भी 2013 में नेहा दक्षित को मुजफ्फरनगर पर लिखी अपनी स्‍टोरी के लिए उत्‍पीड़न का शिकार होना पड़ा है। हम संघ-सम्प्रदाय से सम्बद्ध तत्वों द्वारा कानून के साथ इस खिलवाड़ की भर्त्सना करते हैं और अपने न्याय-विधान से कानून के ऐसे दुरुपयोगों के खिलाफ सावधान होने का आग्रह करते हैं।

हम मांग करते हैं कि नेहा दीक्षित और आउटलुक के खिलाफ सारे मुकदमों को जनहित में तत्काल वापस लिया जाए।

( जन संस्कृति मंच की ओर से सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सह-सचिव, जसम द्वारा जारी)

Tuesday, 31 May 2016

फासीवाद से मुकाबले के लिए समाज और देश को लोकतांत्रिक बनाना होगा


उमा चक्रवर्ती

(7 नवंबर 2015 को गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में उमा चक्रवर्ती ने ‘हिंसा की संस्कृति बनाम असहमति, चुनाव और प्रतिरोध’ विषय पर चौथा कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान दिया था। फासीवाद की सामाजिक जड़ों और कारपोरेट मीडिया के साथ उसके रिश्ते और विश्वविद्यालयों पर हमले की वजह को समझने तथा ज्यादा संगठित प्रतिरोध की जरूरत के मद्देनजर यह एक महत्वपूर्ण व्याख्यान है। पेश है व्याख्यान का संक्षिप्त और संपादित अंश-  समकालीन जनमत, मार्च 2016 में प्रकाशित)

फासीवादी माहौल के पीछे एक लंबी प्रक्रिया है और हमारे समाज में वो इतनी फैली हुई है और इतनी गहरी है कि शायद लोगों को कोई दिक्कत नहीं है कि ये किसी तरह का फासीवाद है। हमें समझने की जरूरत है कि इतनी आसानी से हम वैर भावना और हिंसा को कैसे स्वीकार कर लेते हैं? हम समझने की कोशिश करें कि हमारे समाज में कौन सी चीजें हैं जो हमें एक असल लोकतांत्रिक स्वतंत्र सोच वाले वाले समाज बनाने से रोकती हैं। 

सारे लेखकों और बड़े वैज्ञानिकों ने सम्मान वापस करके थोड़ा सा माहौल बनाया कि रुको, देखो क्या कर रहे हो? लेकिन पिछले हफ्ते ही तमिलनाडु में एक दलित लेखक (गायक) है जिसको देशद्रोह के आरोप में जेल में डाल दिया गया। उसने क्या लिखा था? जो शराब की नीति है तमिलनाडु में उसके विरुद्ध बोला था और अम्मा जी का मजाक उड़ाया था थोड़ा सा, जो वाजिब है। स्टेट की नीति, सरकार की नीति को लेकर अगर हम टिप्पणी और मजाक नहीं करेंगे तो क्या करेंगे! इसके ऊपर ज्यादा चर्चा नहीं हुई। यह क्या माहौल हैं कि आप मुंह खोलेंगे तो आप पर राजद्रोह लगा दिया जाएगा! तो असहमति की सोच कैसे बनेगी? विनायक सेन को देखो आप। क्या कर रहे थे वे? इनकाउंटर किलिंग की जांच कर रहे थे, उनको जेल में किसने डाल दिया? उन पर भी देशद्रोह चार्ज लगा हुआ था। लेकिन देश क्या है? 

उमा चक्रवर्ती 
दाभोलकर और पानसरे तो तर्कवादी थे। कलबुर्गी के बारे में हमें सोचना चाहिए कि क्या उनका इतिहास वही है? कलबुर्गी लेखक थे, प्रोफेसर थे। लिंगायत वचन के ऊपर लिखा। वो उसी समाज के अंदर के थे और उसी समाज के बारे में लिखा। मतलब आज हमारे देश में आप किसी समाज का हिस्सा हो तो उस समाज के लिए टिप्पणी भी नहीं कर सकते। क्यों? कलबुर्गी कन्नड़ साहित्य के माहिर बुद्धिजीवी थे। उन्होंने वचनों को अपनी तरह से देखा और टटोला, दो तरह की धाराएं उनको दिख रही थीं। उन्होंने कहा कि बसवन्ना की जो दूसरी बीवी थीं, उनकी कविता में ऐसा दिखता है कि वे यौन रूप से संतुष्ट नहीं थीं। दूसरा अहम मुद्दा था कि बसवा की बहन की शादी एक दलित के साथ हुई थी। इन दोनों चीजों को लेकर के बवाल मचा था, जबकि वो जो धारा थी- जाति विरोधी और कर्मकांड विरोधी। लेकिन वही वीरशैव समाज, वही लिंगायत जो हैं, अब ठेकेदार बन गए हैं, वो अब कहेंगे- ठीक, तो उसे ठीक माना जाएगा, और वो कहेंगे- गलत, तो उसको नकारा जाएगा। कलबुर्गी के इतिहास की किताब को वापस कर लिया गया था, उसको बैन कर दिया गया था। वह कभी भी लोगों के सामने नहीं आई। तो यह रिश्ता है हमारा परंपरा के साथ कि हम खोलकर के टटोल भी नहीं सकते उसे पूरी तरह से, क्योंकि हमारे ऊपर जो ठेकदार बैठे हैं वे हमारा मुंह दबा देंगें। इन दोनों चीजों में दिख रहा है कि जाति और जेंडर केंद्र में हैं। बसवन्ना की बहन ने अंतर्जातीय शादी की। लेकिन जाति व्यवस्था में वीर शैव खुद एक जाति बन गया। कलबुर्गी को क्यों मारा गया? क्योंकि कलबुर्गी ने सोचने का अधिकार नहीं छोड़ा था- अपने दिमाग से, अपनी समझ से सोचने का अधिकार। 

जबसे अत्याचार है तबसे उसके विरोध का स्वर भी है। बुद्ध के जमाने से अत्याचार के विरुद्ध हमारे पास विरोध का वैकल्पिक आधार है। आप खुद को विवेकवान बनाओ, अपने आप समझो, अपनी समझ और ज्ञान बढ़ाओ- यह जो हमारी परंपरा है, उसके साथ संलग्न रहना आज आसान नहीं है, क्योंकि जितना उसको हम बाहर लाएंगे, हमारे ऊपर उसी तरह के आरोप लगेंगे कि आप हमारी भावना को आहत कर रहे हो। भावना आहत होने को एक तरह से आज संवैधानिक अधिकार बना दिया गया है। आज के जमाने में ज्योतिबा फुले होते तो ये उनको भी मार डालते। उन्होंने कहा था कि मैं तो तीसरी आंख के पीछे जा रहा हूं। मुझे तीसरी आंख चाहिए। तीसरी आंख- जो आंख के पीछे दिमाग है, जो दिमाग के अंदर आंख है, जिससे आप समाज को समझें। 

अब हमारी मीडिया है। अर्णव गोस्वामी जितना चिल्लाता है उसको उतनी ही वाहवाही मिलती है। उसका जो स्टाइल है, बुलाता है दस तरह के लोगों को। फिर बोलने को उसी को कहता है जो शायद उसी के जैसा राय रखता हो। आनंद पटवर्धन ने कहा कि मैंने इमरजेंसी के ऊपर फिल्म बनाई। विरोधी स्वर तो उसका तब से ही था, कांग्रेस का बंदा तो बिल्कुल नही है। फिर पूछा जाता है कि माओइस्ट के विरुद्ध क्यों नहीं बोले! मैनुफैक्चर्ड अटैक, क्योंकि कोई आधार नहीं है जिसे लेकर आप चिल्ला रहे हैं। डिबेट जो हमारे चैनल दिखा रहे हैं, उससे पोलराइज्ड हिस्टिरिया मैनुफैक्चर्ड हो रहा है। ...असलियत में ये जमीन हड़प कर रहे है, खनिज क्षेत्र पर धावा बोल रखा है, वहां छत्तीसगढ़ में पब्लिक सिक्युरिटी एक्ट लगाकर के सिविल सोसाइटी को खत्म कर रखा है। छत्तीसगढ़ में कोई सिविल सोसाइटी बची ही नहीं हैं। कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। ये स्थिति बना रखी है। मिलिट्राइजेशन का तो आज मार्केट है। हमें देखना चाहिए कि आंगनबाड़ी के लिए जो पैसा कम हो गया है, वो पैसा कहां गया है। आपका ध्यान उन्होंने टीवी के महाभारत पर लगा रखा है। ये जो माहौल है उसमें स्टेट की वास्तविक आर्थिक-राजनीतिक मंशाएं छुप जाएंगी। कैसे हम अपनी बात रखेंगे और कैसे लिखेंगे, हम कैसे दूसरों के साथ बातचीत करेंगे, हम कैसे अंततः एक राजनीतिक जनगोलबंदी करेंगे! अब तो मुंह खोलकर किसी फिल्म के बारे में भी बोल नहीं सकते, क्योंकि आपको चुप करा दिया जाएगा। दूसरा यह कि जो लंबे संघर्ष के मुद्दे हैं, जाति के वर्चस्व को लेकर और बीच-बीच में जो आॅपरेशन चल रहे हैं, वो सारी चीजें लुप्त हो जाएंगी, सारी चीजें सामान्यता में चली जाएंगी। 

फासीवाद का हिंसा से क्या रिश्ता है, थोड़ा उसके बारे में बात करेंगे। ईपीडब्ल्यू में तेलतुंबड़े का एक लेख आया है। वे कहते हैं कि हमारे यहां धर्म आधारित फासीवाद है। वे मुसोलनी के कथन से लेख की शुरुआत करते हैं कि जो हमसे सहमत नहीं, उसकी हम चर्चा नहीं करेंगे, उससे तर्क नहीं करेंगे। हमें सिर्फ उसको मारना है। सीधी बात यह है कि जो हमारे साथ नहीं है वह जीने के काबिल नहीं है। उसे मार डालो। फासीवाद की खासियत यह है वह हिंसा का इस्तेमाल करता है, उसे वैधता प्रदान करता है। फासीवाद का एक गहरा रिश्ता उन लंपट-अपराधी तत्वों से है जो किसी प्रदर्शनी या सिनेमा हाॅल में हमला बोल देते हैं। विश्वविद्यालयों पर तो बोलते ही हैं। दस लड़के आते हैं, कहते हैं कि रामानुजम का लेख पढ़ने नहीं देंगे, तोड़-फोड़ करते हैैं और कोर्स बदल दिया जाता है! राज्य की शक्ति इन्हें वैधता देती है कि चाहे तुम जो करो, हम कुछ नहीं बोलेंगे। एम एफ हुसैन की पेंटिंग प्रदर्शनी में तोड़-फोड़ की जाती है, सुधींद्र कुलकर्णी, जो भाजपा का ही आदमी है, उस के मुंह पर कालिख पोत दी जाती है। 

लोग बताते हैं कि सोशल मीडिया पर कैसी गंदगी है और कैसा हमला होता है वहां पर, अगर आप खुला दिमाग रखते।  इस माहौल की जड़ कहां है? रोमिला थापर कहती हैं कि जो गंदगी या वैर की सोच थी, उसे आज एक पब्लिक स्फियर में मान्यता मिल गई है। जिसे हमने दबा के रखा था, समुदाय आपस में जो आक्षेप लगाते थे अपने घरों के अंदर, अब वो खुल्लमखुल्ला पब्लिक स्फियर में आ गया है। आप कुछ भी कह सकते हैं, किसी भी तरह के लांक्षण लगा सकते हैं। 

हमारे देश में एक तरह की मोरल पुलिसिंग हो रही है। यह जो मोरल पुलिसिंग को वैधता मिली है, वह हमने अपने समाज को दे रखी है। अछूतपन को हमने खत्म किया, पर जाति को हमने नष्ट नहीं किया। जाति और जेंडर को लेकर जो परिस्थिति है, उसमें खासकर अंतर्जातीय शादियां जो हैं, उसको लेकर हौवा हमारे देश में है। यह एक समुदाय को पराया बनाने की तरह ही है। मैं मानती हूं कि सांप्रदायिकता आज की चीज नहीं है। इसका बहुत लंबा इतिहास है। जाति सांप्रदायिकता का ही एक रूप है। इसे हमने बिल्कुल स्वाभाविक बना रखा है। जबकि यह कितनी घिनौनी चीज है कि आप एक बंदे को मानव ही नहीं समझते। अगर आप ऐसा कुछ भी समझते हैं तो आप उसके प्रति किसी तरह की हिंसा को सही मानेंगे। इतने कानून थे, क्यों एससी/ एसटी के लिए कानून की जरूरत पड़ी? क्योंकि इतनी संरचनात्मक हिंसा उनके ऊपर है। असल मायने में संविधान लागू हो तो हमें उसकी जरूरत क्यों होगी? जरूरत इसलिए है कि जातिवाद हमारे समाज में गहरा धंसा हुआ है। 

जो अंतर्जातीय शादी करना चाहता है, वह अपने को विद्रोही नहीं समझता, वह औरत अपने को विद्रोहिणी नहीं समझती है। वह अपने चुनाव के आधार पर बस जीना चाहती है, पर समाज को वह मंजूर नहीं है। यह जो खाप पंचायतें हिंसा कर रही हैं, वो भी फासिस्ट हैं। वे यह तय कर रहे हैं कि कौन किससे बात करेगा, कौन किससे रिश्ता रखेगा। विष्णुप्रिया तो दलित अफसर थी। इसी तरह के एक केस को सही मायने में चला न सकने के कारण उसने आत्महत्या कर ली। फासीवाद की जड़ें हमारे समाज में हैं। जब अंतर्जातीय शादियों पर इतनी घिनौनी प्रतिक्रिया होती है, तो बाबू बजरंगी ही पैदा होंगे। और क्या होंगे! बाबू बजरंगी का क्लेम यह था कि हर हिंदू घर में एक एटम बम है। और वो एटम बम क्या है! जो लड़की है उनके घर में, वो एटम बम है। वो कभी भी फूट सकती है। क्योंकि वह कभी भी किसी के साथ जा सकती है। वह चली जाएगी, तो सारा समाज जो है- आपका परिवार, आपका संस्थान, आपका समुदाय, आपका कौम, आपका देश- सब भंग हो जाएगा, क्योंकि वह लड़की अपने पसंद का चुनाव कर लेगी। तो इस संरचनात्मक हिंसा की गहरी वजहें हैं। उसी चीज से फिर आगे चलकर ‘लव जेहाद’... जिस मामले में दंगे हो जाते हैं। 

आपलोगों को हैरानी होगी यह जानकर कि विश्व हिंदू परिषद, खासकर उसका अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप तब आया, जब मीनाक्षीपुरम का धर्म परिवर्तन हुआ था। वहां दलितों ने सोचा कि हमको मुसलमान बन जाना है। असलियत तो यह थी कि एक संपन्न जाति की लड़की और एक दलित लड़के ने भाग के शादी की थी। वे महीनों तक केरल जाके रहे... ये तमिलनाडु की बात है...। लड़के के परिवार वालों पर ऐसा दबाव डाला गया कि अंततः उन्होंने मिलके सोचा कि हम ये रास्ता निकालते हैं कि हम मुसलमान बन जाएंगे। उसके बाद देखते हैं कि क्या कर लेंगे? यही बुनियाद है बीएचपी का। अगर आप राजनीति में अंतर्जातीय शादी को नहीं डालेंगे और कहेंगे कि यह बाहर का मामला है, यह स्टेट का मामला नहीं है, यह राजनीति नहीं है, घर में जो होता है, वह राजनीति नहीं है, तो यह ठीक नहीं है। हर चीज में राजनीति है, हर चीज में एक सबंध है। एक पूरा सेलेक्शन है कि किस तरह का घर होगा, किस तरह की शादी होगी, किस तरह से लोग रहेंगे, किस तरह का कौम बनेगा, किस तरह का हमारा देश बनेगा। फासिज्म मुझे लगता है लोगों के प्रतिदिन के जीवन में है। आप सोच नहीं सकते, आप बोल नहीं सकते, आप अपने मन से बैठ नहीं सकते। आंगनबाड़ी में कोई दलित है, तो बच्चा उसके साथ पानी नहीं पी सकता है। आपने बच्चे में घृणा की मान्यता दी है। मतलब हमने बच्चों को भी स्वाभावित तौर पर दलित और ऊंची जाति में बांट दिया है। 

तो यह जो जो संरचना बनी हुई है उसमें राइट टू एक्ट तो है ही नहीं, राइट टू थिंक भी नहीं है, बहिष्कृत कर दिया गया है। पहले हमारे समाज में कोई अपनी जिंदगी का स्टाइल थोड़ा सा चेंज कर देता था, तो हम उसे बहिष्कृत कर देते थे, अठारहवीं-उन्नीसवीं षताब्दी, बल्कि बीसवीं शताब्दी के अंत तक। आप देखेंगे गिरीश कासरवल्ली की फिल्म है- घटश्राद्ध। एक ब्राह्मण विधवा का रिष्ता हो गया किसी के साथ तो उसको बहिष्कृत कर दिया। हमारे समाज में कोई सहिष्णुतता बरतने को तैयार नहीं है। उस जमाने में बहिष्कृत करते थे, आज मार ही देते हैं। वो जो लड़की थी, जो मीडिया स्टुडेंट थी निरूपमा, ब्राह्मण थी, जिस लड़के से वो शादी करना चाहती थी वह सिर्फ कायस्थ था। यह भी नहीं था कि वह दलित था। उस पर भी बावेला मचा। वह मर तो गई। उसके पहले उसके पिता जी ने उसको एक चिट्ठी लिखी थी, कि तुम जिस संविधान की बात कर रहे हो, उसको सिर्फ 60 साल हुए हैं। हमारा संविधान जो है वह 2000 साल का है। यानी उनका संविधान जो है वह ब्राह्मणवादी टेक्स्ट पर आधारित है। तो यह माहौल जो बना हुआ है, उसमें जिस तरह की पुलिसिंग होती है, वह मोरल पुलिसिंग होती है, आपके ऊपर निगरानी रखी जाती है। 

हम उसको इतना रोजमर्रे की तरह लेते हैं कि हम सोचते भी नहीं हैं कि असहमति का अधिकार, अलग तरह से जीने का अधिकार, भिन्न तरीके से सोचने और उस पर अमल करने का अधिकार भी होना चाहिए। सोचने का अधिकार तभी होगा, जब उसके अनुसार कर्म का अधिकार होगा। सोच-विचार का अधिकार अपने आप में एक मानवीय अधिकार है, उसकी अभिव्यक्ति होनी चाहिए। मेरे दिमाग में कोई बात है। मैं उसके बारे में लिखूंगी, लिखूंगी तो आप पढ़ेगे। हमारा संप्रेषण होगा, हम समाज के साथ संवाद बनाएंगे। अगर आप लिख नहीं सकते हो, अगर आप कर्म नहीं कर सकते हो, आप सोच भी नहीं सकते हो, तो जाहिर है आप आगे जाकर एक रबर स्टाम्प वाला समाज ही बनाना चाहते हो। 

आज हाशिये से तो चुनौती आएगी ही आएगी, क्योंकि वो तो अपना हक मांगेंगे, चुप कोई नहीं बैठने वाला।...युवा जो हैं, चुनौती उनकी ओर से भी आने लगी है, वो चुप नहीं रहना चाहते हैं। विश्वविद्यालयों वगैरह में कुछ गुंडे लड़के तो होते ही हैं, पर बड़े दायरे में थोड़ा फैलाकर देखें तो युवा लोगों में थोड़ी-सी प्रश्नात्मकता आ गई है। जो आसानी से सहमत नहीं हैं अपने समाज से, घटनाओं को लेकर वे सोचते हैं, उनमें बहुत-से लोग नए तरीके से सोच रहे हैं। तो इसीलिए विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण करना बहुत ही जरूरी समझा जा रहा है। यूजीसी के सामने जो आंदोलन हो रहा है, उसमें एक निरंतरता है। 1975 में इमरजेंसी जब लागू हुई थी, तो वो ‘प्रिजनर्स आॅफ कान्सिएन्स’ का ओपनिंग फ्रेम है न, इंदिरा गांधी का जो पोस्टर है, वो ‘तानाशाहों की आखिरी जगह’ वाला पोस्टर। उस तस्वीर को पोस्टर बनाकर छात्रों ने विश्वविद्यालय में चिपका दिया। विजय प्रताप और जसबीर को पकड़ के ले गए थे, पंखे से टांगकर उनका टाॅर्चर किया गया था। यह विश्वविद्यालय का इतिहास है। हमारे छह क्षिक्षक, जिनमें पांच एमएल (मार्क्सवादी लेनिनवादी) के थे, एक बीजेपी का था, एक अध्यक्ष था डूटा का, वे सब महीनों जेल में रहे थे। विश्वविद्यालय एक जगह थी जहां से राज्य को ललकारा जा रहा था, उससे प्रश्न पूछे जा रहे थे। तो यह भूमिका है बुद्धिजीवियों की। अगर हम सोच नहीं सकते, बोल नहीं सकते, तो विश्वविद्यालय को रहना ही नहीं चाहिए, उसको बंद कर देना चाहिए। लेकिन उसे पूरी तरह बंद नहीं कर सकते, तो वे उल्टे फैसले ले रहे हैं। निजीकरण कर रहे हैं, फी-स्ट्रक्चर के ढांचे में इस तरह बांध रहे हैं कि छात्रों के पास अपने समाज के बारे में सोचने का समय ही न रहे। इसके बावजूद कक्षाओं में जाइए तो छात्रों की आंखों में खुलापन है, उनकी आंखों में प्रश्न हैं, वे वास्तव में आपकी बातों को काफी गहराई से सुनते हैं। और वहीं से आवाजें आ रही हैं। यूजीसी में जो लोग लोग बैठे, उन पर पुलिस के डंडे चले। वह इसलिए न कि किसी तरह से उनका मुंह बंद कर देना है। फिर वे इतिहास को बदलेंगे, अपनी तरह का नेशनलिज्म उसमें डालेंगे, सारी संस्थाओं में अपने लोगों को बिठाएंगे। पहले हम समझते थे कि स्कूल की शिक्षा उनके लिए बहुत मायने रखती है। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि विश्वविद्यालय आलोचनात्मक पूछताछ और सवालों के केंद्र हैं, इसलिए वे उसे दबाना चाहते हैं। इसलिए एक हाथ से वे निजीकरण कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ जो शोध छात्र हैं, उनको जो फेलोशिप मिलती है, ताकि वे अपने परिवारों पर बोझ न बनें, उसको खत्म कर रहे है। यूजीसी की ओर से मिसाइल आ रही है विश्वविद्यालयों के ऊपर, पर मीडिया कहेगी कि हमारी शिक्षा बहुत अच्छी जा रही है, क्योंकि उनके राजनीतिक आका जो बोलेंगे, वे उसी को कहेंगे। 

दरअसल ये हत्यारे हैं। ये आखिर क्यों बच जा रहे हैं? क्योंकि काॅरपोरेट मीडिया ने जो डिबेट चला रखा है, हम फंस गए हैं इस तरह के मामले में कि किसने ज्यादा किया है, 84 में ज्यादा हुआ कि 2002 में। हम तो 84 के खिलाफ भी थे, अन्य बहुत सारे मामलों के खिलाफ थे। इसलिए बकवास मत करो, हम इस समाज का बड़ा हिस्सा हैं। दरअसल उनको विश्वविद्यालयों से चुनौती आ रही है। बुद्धिजीवी कहां बन रहे हैं, कहां अभी उनका मुंह खुला है, कहां वो लिख रहे हैं, किस तरह के लेख लिख रहे हैं, ये चीज जो है, उस पर उनकी निगाह है। जो संरचनात्मक हिंसा है वह यहां जरूर आएगी, बढ़ी हुई सघनता के साथ आएगी। उसका प्र्रतिरोध करना है, यह मानकर लेखकों ने प्रतिरोध किया। आगे देखना होगा कि हम किस तरह का आंदोलन खड़ा करते हैं, किस तरह से अपनी बात फैलाने के लिए अलग-अलग आधार निकालते हैं। प्रतिरोध की संस्कृति हमको बनाना है, उसे पुनर्सृजित करना है। अगर मैं जिंदा हूं तो मैं बोलूंगी। बकौल फैज- बोल की सच जिंदा है अब तक। 

मैं कह रही हूं कि हमें देश के पूरे संरचनात्मक ढांचे और घिनौनी संस्थाओं को बदलकर हर चीज में बेहतरी लानी होगी। हमें अफ्सपा पर बोलना पड़ेगा, हमें जाति पर बोलना पड़ेगा, हमें हर चीज पर बोलना पड़ेगा। सबको आपस में जोड़ना होगा, तभी हम सोचने का एक वैकल्पिक अंदाज बना पाएंगे। मैं साउथ एशियन हूं। साउथ एशिया की जितनी अच्छी चीजें हैं उन्हें ले लूंगी, जो गंदी चीजें हैं उन्हें छोड़ दूंगी। अभी तो मेरा भारत देश मुझसे प्रत्याक्रमण की मांग कर रहा है। एक सचमुच का लोकतांत्रिक समाज जो सचमुच ही सबको हक दे, उस समाज के लिए हमें लड़ना पड़ेगा। अभी हममें जान है, हमें प्रतिरोध की जमीन को बिल्कुल नहीं छोड़ना चाहिए।

Monday, 30 May 2016

मीडिया के जनतांत्रीकरण की लड़ाई बेहद जरूरी है

अगले पांच सालों में अंबानी की जेब में होंगे सारे पत्रकार :  पी. साईनाथ
(वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ द्वारा 5 मार्च को मुंबई कलेक्टिव के तत्वाधान में दिये गये भाषण का सत्येन के. बोर्दोलोई द्वारा संपादित अंश हमने समकालीन जनमत के मई अंक में प्रकाशित किया था। यह पूरा व्याख्यान यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। आज पत्रकारिता दिवस पर पेश है यह भाषण। अनुवाद दिनेश अस्थाना जी ने किया है।)

प्रजातंत्र के चौथे पाये, मीडिया के साथ एक समस्या यह है कि चारों में से अकेला यही पाया ऐसा है जिसमें मुनाफे की गुजाइश है। और इस मुंबई शहर में ‘फोर्थ इस्टेट’ और ‘रियल इस्टेट’ में फर्क करना बहुत मुश्किल है। मीडिया पर नियंत्रण लगातार संकुचित होता जा रहा है और उसी मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार भारतीय समाज आश्चर्यजनक रूप से विविधता से परिपूर्ण, विषमांगी और जटिल है। ज्यों-ज्यों सामाजिक विषमता बढ़ रही है त्यों-त्यों मीडिया समांगी होता जा रहा है। यह एक आश्चर्यजनक और बेमेल विरोधाभास है।

जरा टेलीविजन पर चलने वाली बहसों और बहस करने वाले लोगों की प्रकृति पर एक नजर डालिए। उनकी सामाजिक संरचना क्या है? अखबारों के स्तंभकार कौन लोेग हैं? यह बहुत ही संकुचित और दिशाहीन लोगों का समूह है। मैं देख रहा हूं कि किसानों की आत्महत्या पर सर्वाधिक संवेदना व्यक्त करने वाले लोगों का संबंध सेना से है। क्यों? क्योंकि हमारे जवानों में से अधिकांश वर्दीधारी किसान हैं। सेना के प्रशिक्षण संस्थान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने एक बार मुझसे कहा था कि उन्हें महाराष्ट्र से आए जवानों की ज्यादा चिंता होती है। उन्हें अपने गांव से आने वाले फोन से डर लगता है। जब वे अपने परिवार वालों से बात करते हैं तो खुश होेते हैं लेकिन जब उन्हें अपने घर से फोन मिलता है तो वे घबरा जाते हैं। वे यह नहीं जानना चाहते कि किसी के साथ क्या घट गया है। जवान और किसान में बड़ा ही नजदीकी रिश्ता होता है, असल में उनका वर्ग एक ही है।

राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रद्रोह की बहस कहां से शुरू होती है? यह बहस उन्हीं लोगों द्वारा चलायी जा रही है जिनके आदर्श पुरुषों ने कभी भी राष्ट्रीय संघर्ष में भाग नहीं लिया, जिन्होंने जेल से बाहर आने के लिए उस समय ब्रिटिश सरकार के सामने माफीनामे लिखे, जबकि दूसरे लोग अपनी जान न्यौछावर कर रहे थे। जिन लोगों ने राष्ट्रपिता की हत्या की वे ही राष्ट्रवाद सिखा रहे हैं। हमारी पूरी पीढ़ी इतिहास-विहीन हो चुकी है। उन्हें पता ही नहीं है कि राष्ट्रीय संघर्षों का क्या हुआ, किसने क्या किया था, राष्ट्रभक्त कौन लोग थे और कौन लोग ब्रिटिश साम्राज्य के सहभागी थे। बड़े-बड़े परिवर्तन हो चुके हैं। हालांकि मैं कुछ संपादकों और उद्घोषकों से नाराज हूं, लेकिन मेरा ख्याल है कि पत्रकारिता का सर्वनाश करने की गहरी प्रक्रिया लगातार चल रही है। इस पर ध्यान देने की जगह केवल उद्घोषकों को बदल देने से कुछ नहीं होने वाला है। ऐसे उद्घोषक वहां हैं तो सिर्फ इसलिए कि उन्हें वहां रहने दिया जा रहा है।

पिछले 20 सालों में हमने पत्रकारिता को केवल धन कमाने का जरिया बना कर रख दिया है। इसका कारण है मीडिया का काॅरपोरेटीकरण। मीडिया को नियंत्रित करने वाली शक्तियां इस समय पहले किसी भी समय के मुकाबले बड़ी हैं और अधिक ताकतवर भी हैं। पिछले 25-30 सालों में मीडिया का मालिकाना बड़ी संख्या में और अधिक तेजी से कुछ चुनिन्दा हाथों में सिमटता जा रहा है। सबसे बड़े नेटवर्क समूहः नेटवर्क-18 को ही ले लें। इसका मालिकाना इस समय मुकेश अंबानी के पास है। ईटीवी नेटवर्क के कई चैनलों को आप लोग जानते ही हैं। आप में से कितने लोग जानते हैं कि तेलुगू चैनल को छोड़कर बाकी सभी के मालिक मुकेश अंबानी ही हैं। इसी प्रकार पूरे देश के कई सारे चैनलों के मालिक मुकेश अंबानी ही हैं। अगर हमलोग अगले पांच साल पत्रकारिता में टिके रहें तो हम सभी उनकी जेब में ही पहुंच जाएंगे। जितने चैनलों के मालिक वे हैं उन सभी का तो उन्हें नाम भी नहीं मालूम होगा। फिर भी वह ये फतवा देने में कामयाब रहे कि चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी पर किसी चैनल पर कोई रिपोर्ट नहीं आएगी और ऐसा हुआ भी। इन चैनलों की व्यवसायगत रुचि देश के बड़े काॅरपोरेट घराने की व्यवसायगत रुचि का ही प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए इतना तो तय है कि आने वाले दिनों में कार्यक्रमों की विषयवस्तु पर नियंत्रण और भी कठिन हो जाएगा।
सेल्वाडोर डाली की एक पेंटिंग 

पिछले 20 सालों में उदारीकरण और जनसंसाधनों के निजीकरण से सबसे अधिक लाभ मीडिया को नियंत्रित करनेवाले काॅरपोरेट घरानों ने ही कमाया है। अब तो हर कोई यह भूलने की कोशिश में लगा है कि अपने कार्यकाल के पहले पांच वर्षों में मनमोहन सिंह को तो भगवान ही मान लिया गया था। 2009 में सारे महान उद्घोषकों का मानना था कि उस समय की जीत कांग्रेस पार्टी की नहीं बल्कि मनमोहन सिंह और उनके आर्थिक सुधारों की थी। अब देखते रहिये, निजीकरण का अगला दौर आने ही वाला है। और इसका फायदा किसको मिलेगा? अगर खनन क्षेत्र का निजीकरण किया जाता है तो टाटा, बिड़ला, अंबानी और अडानियों को बड़ा फायदा मिलेगा। अगर प्राकृतिक गैस का निजीकरण होेता है तो एस्सार और अंबानियों को फायदा मिलेगा। और स्पेक्ट्रम का लाभ टाटा, अंबानी और बिड़लाओं को मिलेगा। यानी जनसंसाधनों के निजीकरण का लाभ उन्हीं घरानों को मिलना है जिनके कब्जे में मीडिया भी है। जब बैंकों का निजीकरण होगा तो भी लाभ उन्हें ही मिलेगा। यहीं एक बात ध्यान देने की है। पहले तो उन्होंने हिटलर की तर्ज पर एक हस्ती- नरेंद्र मोदी, बनाने में कुछ साल खर्च किए और उनके प्रतिद्वंद्वियों को धूल चटाकर गुजरात और दिल्ली के कूड़ेदान में डाल दिया। लेकिन उनसे कुछ बन नहीं सका। और उन्हें यह भी नहीं पता है कि अब क्या किया जाए। वह अपना भूमि अधिग्रहण विधेयक भी नहीं पास करा पाए। वह बहुत सारे वे काम भी नहीं कर पाए जिनके लिए लोग लार टपका रहे थे। वे अब मोदी से नाराज तो हैं लेकिन कोई विकल्प है ही नहीं। तो वे अब क्या करें? तो आखिरकार हमें मीडिया में ही कुछ गुंजाइश दिखाई दे रही है जहां कभी-कभार कुछ कहा जा सकता है। 

मैं फिर कह रहा हूं कि भारतीय मीडिया राजनीतिक रूप से तो आजाद है, लेकिन वह मुनाफे में कैद है। भारतीय मीडिया का यही चरित्र है। कन्हैया के मामले में मीडिया की करवट से मैं जरा भी प्रभावित नहीं हूं। याद करिए कि उसके भाषण चला के उन्होंने लाखों लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था। उनके दर्शकों की संख्या एकाएक बहुत बढ़ गयी थी। मीडिया की इस पल्टी के बावजूद उनमें से बहुतों ने बहस के इस पहलू को स्वीकार किया कि कन्हैया के साथ जो भी हुआ, गलत हुआ, लेकिन इसके पहले आप यह कहने के लिए मजबूर थे कि आप राष्ट्रविरोधी नारों के खिलाफ हैं। आपने पेशगी माफीनामा दे दिया, बहस की रूपरेखा को स्वीकार कर लिया और खुद को उसी खांचे में फिट कर लिया। मीडिया का काॅरपोरेटीकरण कोई नई बात नहीं है, लेकिन भारत में उसकी रफ्तार अन्य देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है। अमरीका और आस्ट्रेलिया में यह चरम विंदु तक पहुंच चुका है। जरा पिछले दस साल की पत्रकारिता पर नजर डालिए। पत्रकारिता को झकझोर देने वाले तीन बड़े खुलासों ने इसे जड़ से हिला तो दिया लेकिन मजे की बात यह रही कि इनमें से कोई खुलासा मुख्यधारा की पेशेवर पत्रकारिता के रास्ते नहीं आया। ये तीनों हैं -असांजे और विकीलीक्स, एडवर्ड स्नोडेन और र्चेिल्सया मैनिंग। इनमें से कोई भी तथाकथित समाचार संगठन से क्यों नहीं आया? क्योंकि वे व्यवस्थापना और बड़े व्यापारिक घरानों का मुंह नहीं अगोरते, वे खुद ही बड़े व्यापारिक घराने और बड़ी व्यवस्थापना हैं। बाजार का उनपर इतना बड़ा निवेश है कि वे सच बोल ही नहीं सकते। अगर वे शेयर बाजार की व्याख्या आलोचनात्मक ढंग से करना शुरू कर दें तो उनके अपने शेयरों की कीमत पर असर पड़ने लगेगा। इसलिये कभी भी अखबारों की सलाह पर निवेश न करें। खुद उनके पास लाखों शेयर हैं इसलिये वे आपसे कभी सच नहीं बतायेंगे। चूंकि मुनाफा पत्रकारिता का मुख्य मानदंड बन चुका है इसलिये अगर आप मझोले आकार के उद्यमी हैं और एक बड़ी छलांग लगाने की चाहत में मेरे (दुनिया के सबसे बड़े अंग्रेजी के अखबार) के पास आते हैं तो मैं आपसे कहूंगा कि आप एक निजी समझौते पर दस्तखत कर दें। इस समझौते से आप अपनी कंपनी के 10 प्रतिशत शेयर मुझे दे देंगे। और अगर ऐसा ही होता है तो मेरे अखबार में कभी भी आपकी कंपनी के खिलाफ रिपोर्ट छप ही नहीं सकती। अब अगर किसी अखबार के पास दो सौ कंपनियों के शेयर आ जाएं तो वह अखबार रह भी गया या सिर्फ इक्विटी फर्म बन गया? 

स्वस्थ पत्रकारिता स्वयं से संवाद करने वाला समाज, खुद से संवाद और बहस करने वाला राष्ट्र है। यह एक जनसेवा है और जब हम एक ऐसी सेवा से पैसे बनाने की सोचते हैं, तो फिर इसकी भयंकर कीमत चुकानी होगी। आइए ग्रामीण भारत की एक झलक देखते हैं- 83.3 करोड़ आबादी, 784 भाषाएं जिनमें से 6 ऐसी जिसका प्रयोग 5 करोड़ से अधिक लोेग करते हैं, 3 ऐसी जिसका प्रयोग 8 करोड़ से अधिक लोग करते हैं। अब दिल्ली के सेन्टर फाॅर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत को देश के 6 बडे़ अखबारों के पहले पन्ने पर सिर्फ 0.18 प्रतिशत और देश के 6 बड़े समाचार चैनलों के प्राइम टाइम में सिर्फ 0.16 प्रतिशत जगह मिल पाती है। हमारी जैसी शहरी आबादी की एक तिहाई का मूल ग्रामीण भारत में है। इसलिए मैने इस ग्रामीण भारत में हुए कुछ बड़े संक्रमण की तलाश में पीपुल्स आर्काइव आॅफ रूरल इण्डिया (पारी) की तर्ज पर काम करने की कोशिश की। लेकिन जहां कहीं भी मैं जाता हूं, वहां लोग यह सवाल जरूर करते हैं: आप के धन की योजना क्या है और इस काम से क्या लाभ होगा? मैं बताता हूं कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, लेकिन यदि कला और साहित्य के रचनाकारों से यही सवाल पहले कभी पूछा गया होता तो क्या आज जो कुछ भी काम हुआ दिखाई पड़ रहा है, वह संभव हो पाता। अगर रामायण की रचना करने से पहले वाल्मीकि को या अपने नाटकों की रचना करने से पहले शेक्यपियर को अपने काम के लिए जरूरी धन पाने के लिए कहीं से अपनी योजना बताकर अनुमोदन लेना पड़ता तो क्या होता? मैं कहता हूं कि मैं एक आदमी को जानता हूं जिसके पास आय के स्रोत और काम से लाभ की सुविचारित योजना थी। उसका काम चालीस साल चला। उसका नाम था वीरप्पन। उसके काम में कदम-कदम पर खतरे थे, लेकिन बिना खतरे के कोई उद्यम तो होता नहीं। जितना बड़ा खतरा होगा, उपलब्धि भी उसी अनुपात में होगी।

एक दो अपवादों को छोड़ दिया जाए तो गोमांस प्रतिबंध के परिणामों को लेकर मीडिया ने आजतक कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया है और मैं दावे से कह सकता हूं कि टाइम्स आॅफ इंडिया इसका शानदार अपवाद है। गोमांस प्रतिबंध से आमतौर पर माना जाता है कि मुसलमानों को बहुत नुकसान हुआ होगा, लेकिन इससे सिर्फ मुसलमान ही बरबाद नहीं हुए, दलित और कोल्हापुरी चप्पल उद्योग भी चैपट हो गए, अन्य पिछडी जातियां जिनका पशुओं के बाजार पर प्रभावी नियंत्रण था उन पर कुठाराघात हुआ, लब्बोलुबाब यह कि इससे देहात का सब कुछ चैपट हो गया। आप जानते हैं कि ऐसे बहुत से निम्न या उच्च मध्यमवर्गीय शहरी हैं जिन्हें न तो खेती के बारे में और न ही ग्रामीण अर्थशास्त्र में गाय की केंद्रीय भूमिका के बारे में कोई जानकारी है, लेकिन वे इस बारे में निर्णय लेते हैं। क्या मीडिया ने तीन स्वतंत्र विचारकों- साथी गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर या कलबुर्गी की हत्याओं पर कोई गंभीर और कठोर निर्णय लेने लायक जांच करने की जहमत उठाई है। पुलिस और सरकार की हीलाहवाली के लिए अदालतें लगातार उनकी लानत-मलामत कर रही हैं परन्तु फिर भी कोई गंभीर जांच नहीं की जा रही है। तीनों की हत्या का तरीका एक ही रहा है- एक ही तरह के, मोटरसाइकिल-सवार हत्यारों द्वारा। कहने की बात है कि गुजरात में हरेन पाण्ड्या की भी हत्या इसी तरह हुई थी। 

भाजपा की इस सरकार और पहले की सरकार में फर्क क्या है? मेरा ख्याल है कि वर्तमान समय की राजनैतिक स्थिति एकदम अलग है। इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि आर.एस.एस. का प्रचारक इस बहुमत की सरकार में प्रधानमंत्री है। इसके पहले जो प्रचारक थे वह काफी ढीले-ढाले थे, उनके सक्रिय प्रचारक होने से लेकर प्रधानमंत्री बनने के बीच 40 साल लगे थे, इस बीच वह सौम्य भी हो चुके थे और उनके पास बहुमत भी नहीं था। लेकिन जब प्रचारक को बहुमत मिल गया तो काफी कुछ बदल गया। और मीडिया इसी का फायदा उठा रहा है। 

मुझे विश्वास है कि इस देश में सामाजिक- राजनीतिक रूढ़िवादियों और बाजारू-आर्थिक रूढ़िवादियों का मिला-जुला शासन है और दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। तो ऐसी स्थिति में आप क्या कर सकते हैं? इसलिए इस समय कानून द्वारा, विधायिका द्वारा और जनांदोलनों के द्वारा मीडिया के जनतांत्रीकरण के लिए एक सशक्त आन्दोलन की सख्त जरूरत है। साहित्य, पत्रकारिता, किस्सागोई ये सभी किसी काॅरपोरेशन मे निवेश के चलते नहीं आए हैं। ये आए हैं लोगों के और विभिन्न समाजों के समुदायों से। हमें इसे उन्हीं तक पहुंचाने का इंतजाम करना होगा। जब बाल गंगाधर तिलक को देशद्रोह के आरोप में जेल भेजा गया तो लोग उनकी पत्रकारिता की आजादी के लिए सड़कों पर उतर आए थे और मरने तक के लिये तैयार हो गये थे। यह था मुंबई का मजदूर तबका। उनमें से कुछ लोग ऐसे भी थे जो पढ़ना-लिखना जानते भी नहीं थे। लेकिन वे एक भारतीय की अभिव्यक्ति की आजादी के बचाव में सड़कों पर उतर आए थे।

किसी समय भारतीय मीडिया और आम लोगों के बीच के संबंध बहुत प्रगाढ़ थे। इस जन-उद्घोषक को प्रभावी बनाने के लिए मीडिया के जनतांत्रीकरण की लड़ाई बेहद जरूरी है। एकाधिकार तोड़ना बहुत जरूरी है- मीडिया के मालिकाना के एकाधिकार से आजादी। मीडिया के मालिकाना में विविधता के विस्तार की जरूरत है, मीडिया आज गिने-चुने हाथों में सिमट कर रह गया है, इस निजी तंत्र में जनसामान्य की भागीदारी बहुत जरूरी है और विश्वास कीजिए, इसके लिए लड़ना ही होगा। यह आसान तो नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है।

Saturday, 28 May 2016

भगवतीचरण वोहरा : एच.एस.आर.ए. का मस्तिष्क



शहादत दिवस 28 मई पर विशेष

भगवतीचरण वोहरा, दुर्गा भाभी और उनका पुत्र शची 
भगवतीचरण वोहरा ने भगतसिंह के साथ मिलकर भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को सैद्धांतिक-वैचारिक तौर पर समाजवादी दिशा देने में अहम भूमिका निभाई थी। हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ के इस कामरेड की शादी छोटी उम्र में ही हो गई थी। उनके पिता आगरा से लाहौर आ गए थे। 1921 के सत्याग्रह में उन्होंने काॅलेज छोड़ दिया। आंदोलन वापिस होने पर उन्होंने नेशनल कालेज, लाहौर में दाखिला लिया और वहीं पर बी.ए. की डिग्री ली, साथ ही क्रांतिकारी आंदोलन में दीक्षा भी। भगतसिंह की गिरफ्तारी के बाद यशपाल और भगवतीचरण वोहरा ने वायसराय की ट्रेन उड़ाने का प्रयास किया था जिसमें आंशिक सफलता मिली थी। भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना के सिलसिले में रावी तट पर बमों के परीक्षण के दौरान 28 मई 1930 को हाथ में ही बम फट जाने से उनका देहांत हुआ था। यहां प्रस्तुुत है उनके साथी जयदेव कपूर का संस्मरण, जिसे हमने समकालीन जनमत के मई 2016 अंक में डाॅ. भगवानदास माहौर द्वारा संपादित काकोरी शहीद स्मृति पुस्तक से साभार प्रकाशित किया है - सं. 

सन, 1930 के मई मास का अंत था। भरी दुपहरी, ऊपर आकाश में सूरज जल रहा था। नीचे धरती पर लू की लपटें लहरा रही थीं। असह्य गर्मी थी। गर्द और गुबार भरे आंधी-अंधड़ ने राह चलना दूभर कर रखा था। अधिकतर दुकानें या तो बंद थीं या फिर उनके द्वारों पर भारी-भारी पर्दे पड़े हुए थे। इंसान तो दूर रहा, जानवर तक घर से बाहर निकलने का साहस खो बैठे थे। सड़कें सब सुनसान थीं। दोनों किनारों पर चुपचाप खड़ी हुई इमारतों की ऊंची-ऊंची दीवारें सायं-सायं कर रही थीं। कहीं किसी प्रकार की कोई जुंबिश नजर न आती थी। एक अजीब उदासी, मरघट जैसी मुर्दनी ने उस दिन लाहौर नगरी को ढंक लिया था। 

सहसा तीन नौजवान, बोस्टर्ल जेल के समीप बहावलपुर रोड स्थित एक बंगले से बाहर निकले। एक बार खोज करती हुई पैनी-पैनी आंखों से उन्होंने चारों ओर देखा, और फिर सड़क पर चल दिए। उनकी गंभीर मुखमुद्रा, अंतर में किसी भीषण निश्चय की परिचायक थी। वे चले जा रहे थे, अपने भारी पगचाप से सड़क का सीना रौंदते हुए, गर्द-गुबार के तूफान को चुनौती देते हुए, तीनों चुपचाप, सिर झुकाये हुए, किसी गहरे चिंतन में लीन। आपस में भी वे एक-दूसरे से बोलते न थे। चारों ओर की नीरव स्तब्धता और इन अनोखे मुसाफिरों का गहरा मौन भंग करते हुए सड़क के किनारे किसी वृक्ष की छांह में हांफता पड़ा हुआ कोई कुत्ता कभी भौंक उठता था। तब वे चौकन्ने होकर चारों ओर देख लेते, और पुनः उनके पग आगे बढ़ जाते, अपने पूर्व निश्चित और निर्दिष्ट पथ पर। चलते-चलते रास्तें ने भी उनका साथ छोड़ दिया। कोलतार और पत्थर की सड़क समाप्त हो गई। अब उनके सामने आगे दूर तक फैला हुआ रेतीला मैदान, जिसकी चमक से आंखें चकाचौन्ध हो जाती थी। एक क्षण के लिए वे ठहरे। एक बार आंख उठाकर उन्होंने ऊपर देखा। आकाश में अब भी वही जलता हुआ सूरज, सामने बालू का विस्तार। और फिर कुछ सोचकर वे चल दिए, उस बालू में अपने पदचिह्न पीछे छोड़ते हुए। चलते-चलते वे तीनों बालू का मैदान भी लांघ गए। अब उनके सामने घना जंगल, और समीप ही उसके बीच से बहती हुई रावी नदी, उसका भयावह चीत्कारपूर्ण प्रवाह।
जयदेव कपूर 

अभी तक वह दूसरों के बनाए या बताए हुए रास्ते पर चल रहे थे। अब आगे उन्हें अपना रास्ता स्वयं बनाना था। ऐसे में तेजी से साथ बढ़कर आगे हो लिए भगवतीचरण। उनके पीछे थे सुखदेव राज, और सबके पीछे बच्चन (वैशम्पायन)। ऊंचे-नीचे टीलों, लताओं-वृक्षों के झुरमुटों के बीच में से, टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता बनाते हुए, वे तीनों अब भी चलते ही चले जा रहे थे। घने जंगल के बीच सुविधाजनक एक स्थान देखकर, सहसा भगवती भाई के कदम रुक गए। पीछे आने वाले साथियों को संबोधित करते हुए बोले: ‘सावधान साथियो! पीछे हट जाओ। अब मैं इस बम का परीक्षण करने जा रहा हूं।’’ यह कहकर उन्होंने अपने झोले से लोहे का अंडाकार बम बाहर निकाल लिया। रबड़ की इलास्टिक डोरी खींचकर घोड़ा चढ़ा दिया और बम के मुंह पर मरकरी फुलमिनेट की टोपी फंसा दी। दो-एक बार उसे उलट-पुलटकर देखा, फिर पीछे साथियों से कहा: ‘‘इसका घोड़ा तो बहुत ढीला है। आज इसे रहने दिया जाए।’’ तुरंत थोड़ी दूर से सुखदेव राज बोल उठा: ‘‘तुम्हें भय लगता है तो लाओ मुझे दो।’’ भगवती भाई जोरों से हंस पड़े, बोले: ‘‘जिस दिन इस रास्ते में पहला कदम रखा था, उसी दिन मौत का भय, गहराई में, बहुत गहराई में दफना आए थे, सुखदेव! क्या बात करते हो? अच्छा पीछे हट जाओ!’’ और इतना कहते हुए उनका बांयां पैर आगे बढ़ा, दाहिना हाथ आकाश में अर्धवृत्ताकार बनाता हुआ लहराया और उन्होंने बम फेंक दिया।

हाथ से बम का छूटना था कि तत्क्षण भीषण विस्फोट हुआ। जंगल का कोना-कोना गूंज उठा। धरती कांप उठी, वृक्ष हिलने लगे। छोटे-छोटे जानवर भय से भाग चले। पक्षीगण जोर-जोर से चिल्लाते, शोर मचाते हुए, आकाश में उड़ने लगे। और इधर भगवती भाई का भारी-भरकम शरीर भूमि पर गिर गया। एक क्षण के लिए तो समझ में न आया- क्या हो गया, कैसे? और फिर तुरंत ही झपटकर बच्चन ने अपनी बांहों में भाई को भर लिया। फिर आंसू भरी आंखों से देखा उसने, भगवती भाई का एक हाथ कलाई के पास से कट गया था। दूसरे हाथ की उंगलियां उड़ गई थीं। चेहरे पर कई जगह गहरे घावों से रक्त बह रहा था। पेट में बड़े-बड़े छेद हो गए थे, जिनसे लहू की फुहारें निकल रही थीं। आंतें कुछ बाहर निकल आई थीं। सारा शरीर क्षतविक्षत, लहूलुहान। लेकिन मुख पर वही तेज, वही सदैव हंसती हुई सौम्य शांत चेतना अभी जाग्रत थी। बोले वह: ‘‘यही दुख है, भगतसिंह के छुड़ाने में सहयोग न दे सकूंगा।...काश, यह मृत्यु दो दिन बाद होती!’’ इतना कहते हुए वह बेहोश हो गए। 

बच्चन दौड़कर नदी के जल से कपड़ा भिगा लाया। भीगे कपड़े से मस्तक पोंछा, जल की कुछ बूंदें मुख में डाली, तो भैया ने फिर आंखें खोल दी। धीमे स्वर में रुक-रुककर कहने लगे: ‘‘मैं जा रहा हूं। मेरे मरने की खबर पुलिस को न मिलने पाए।...अपना आंदोलन मजबूती से चलाते रहना....’’ और उनके अंतिम शब्द थे: ‘‘मरने से पहले यदि आजाद भैया से मुलाकात हो सकती....’’ और भी न जाने क्या और कितना कहना चाहते थे। लेकिन, दिल की बातें दिल ही में रह गई, जबान पर न आ सकी। और वह चले गए, सदैव के लिए चले गए, हमें और हमारी दुनिया को छोड़कर। 

कहते हैं जीवन को समझना है तो मृत्यु को देखो। मृत्यु में जीवन का समस्त दर्शन झिलमिलाता है। भगवती भाई की मृत्यु के क्षणों में, उनके अंतिम दो शब्द उनकी जीवन की सारी कहानी कह गए। मृत्यु की विकराल विभीषिका के बीच वह हमारा भाई कितना शांत था, कितना निर्भय! कालीदह के विषधर के फणों पर नृत्य करते हुए कृष्ण की भांति! मृत्यु उन पर हावी न हो पाई, वह मृत्यु पर हावी रहे। अंतिम क्षणों में उन्होंने अपनी प्रियतमा पत्नी दुर्गा देवी को याद नहीं किया। अपने सुंदर सुकुमार शची को याद नहीं किया। याद किया उन्होंने आजादी और इंकलाब के लिए लड़ने वाली अपनी पार्टी को, याद किया उन्होंने अपने सेनापति आजाद को। और अंतिम संदेश जो वह छोड़ गए, अपने साथियों के नाम, देश की कोटि-कोटि शोषित और सताई हुई जनता के नाम, वह भी यही था: ‘‘अपना आंदोलन मजबूती से चलाते रहना।’’ ऐसे थे हमारे भगवती भाई। ऐसी थी उनकी महान निष्ठा, उनकी एकाग्र साधना, अपने आदर्शों, सिद्धांतों के प्रति। उनका जीवन पूर्णरूपेण अर्पित था, उत्सर्ग था, आजादी और समाजवाद के लिए। इसके लिए वह जिये, इसके लिए वह मरे। 

उस दिन घने जंगल के बीच, निर्जन एकांत में हम अपने शहीद साथी के शव का समुचित सत्कार न कर सके। एक सफेद चादर में किसी तरह समेटकर उन्हें नदी तक ले गए। कुछ भारी-भारी पत्थर चादर के चारों खूंट से बांधकर, राष्ट्र की यह अमूल्य निधि रावी के अथाह जल को समर्पित कर आए। कोई सलामी का बाजा नहीं, कोई विदाई की धुन नही। हम किसी प्रकार की रस्म-अदाई तक न कर पाए। लेकिन भगवती भाई अपनी मनचाही कर गए। लोगों से, जो उनके बहुत निकट रहे हैं, सुना है कि जीवन के एकांत क्षणों में वह अक्सर गुनगुनाया करते थे : 

मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक,
मातृभूमि हित शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक। 

क्रांतिकारियों में भी भगवती भाई बहुत चमकने वाले रत्न थे। हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ के कमांडर आजाद थे तो भगवतीचरण सैद्धांतिक संघर्ष में अपना सानी नहीं रखते थे। ऐसे बहादुर और ऐसी सूझबूझ वाले नेताओं को पाकर कोई भी पार्टी चमक सकती थी। आश्चर्य नहीं, उस समय के समाजवादी प्रजातंत्र संघ अपनी अमिट छाप छोड़ गया है। 

और वे दिन भी क्या दिन थे। अवनी अंबर में जैसे आग बरस रही थी, सब ओर चिनगारियां बिखर रही थीं और एक-एक चिनगारी अंगार बनने जा रही थी। आजादी के दीवानों की अलमस्त टोली सिर से कफन बांधे हुए विदेशी शासन को चुनौती दे रही थी: ‘‘नहीं रखनी सरकार जालिम नहीं रखनी!’’ लाला लाजपतराय पर लाठी बरसाने वाला अंग्रेज कप्तान साण्डर्स लाहौर में दिन-दहाड़े शहर की सड़क पर गोली का निशाना बन चुका था। वायसराय की ट्रेन की नीचे बम-विस्फोट हुआ। चटगांव में सरकारी शस्त्रागार लूट लिया गया। गढ़वाली पल्टन के सूरमा सिपाही बगावत का झंडा बुलंद कर रहे थे। बंबई, अहमदाबाद, नागपुर के मजदूर बड़ी-बड़ी हड़तालें कर रहे थे। देश के किसान सामूहिक रूप से लगानबंदी करने जा रहे थे। कितनी महान क्रांतिकारी संभावनाएं भरी हुई थी उस समय और परिस्थिति में! 

विदेशी शासन ने भी दमन की संपूर्ण मशीनरी- सेना, पुलिस, जेल, अदालतें सब- अपने पूरे वेग से चालू कर दी थीं, आजादी के इस आंदोलन को कुचलकर खन के गड्ढे में डूबा देने के लिए। 

इधर देश के मध्यमवर्गीय राजनीतिक रहनुमा, क्रांति और उसके परिणामों से घबराने वाले नेता, जनता के आगे बढ़ते हुए कदम क्रांतिपथ से हटाकर सुधारवादी गलियों की ओर मोड़ देने के लिए प्रयत्नशील थे। ऐसे महान (?) नेता कभी भगत सिंह की तुलना अब्दुल रशीद से करते थे, कभी यतींद्रनाथ के बलिदान को ‘आत्मघात’ की संज्ञा देते थे, कभी गढ़वाली पल्टन के गोली चलाने से इनकार करने पर उन्हें ‘अनुशासनहीन’ कहकर ‘कर्तव्यविमुखता’ का दोषी ठहराते थे। उनकी दृष्टि में ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा एक ‘महान मूर्खता’ थी। आजादी और इंकलाब के लिए जीवन होम करने वाले नौजवान उनकी दृष्टि में ‘कायर’ थे। तभी तो ‘कल्ट आॅफ बम’ शीर्षक लेख लिखकर तथा लाहौर कांग्रेस के अवसर पर वायसराय को बधाई देते हुए, देश के क्रांतिकारियों की सार्वजनिक भर्त्सना के प्रस्ताव पास किए जा रहे थे, उनके कार्याें को ‘जघन्य’ घोषित करते हुए सर्वसाधारण जनता को उनसे दूर रहने और अलग रहने की ‘नेक सलाह’ दी जा रही थी। 

ऐसे समय में देश के राजनीतिक क्षितिज पर एक सितारा चमक उठा, जिसके प्रकाश ने कितनों को रास्ता दिखाया। उसने ब्रिटिश साम्राज्यशाही के दमन का मुंहतोड़ जवाब दिया, हिंदुस्तानी नौजवानों के हाथों में बम और पिस्तौल देकर उसने सुधार और समझौतापरस्त मध्यमवर्गीय नेताओं की खोखली राजनीति का पर्दाफाश किया, अपनी ओजमयी लेखनी और वाणी से उसने क्रांति का पथ प्रशस्त किया, देश के नौजवानों, मजदूरों और किसानों के लिए उसके द्वारा लिखित ‘नौजवान भारत सभा का घोषणापत्र’, ‘बम का दर्शन’ तथा अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों ने क्रांतिकारी आंदोलन का मार्ग-प्रदर्शन किया, उसकी जड़ें गहराई तक जनता के मानस में जमाईं, और आज भी वे आग के अक्षर हमारी रहनुमाई कर रहे हैं। ऐसा था हमारा साथी भगवतीचरण।

जन्म जुलाई 1902 में, आगरा में। प्रारंभिक शिक्षा आगरा तथा लाहौर में। सब प्रकार से सुखी और संपन्न परिवार। जीवनसंगिनी के रूप में ऐसा रत्न उन्होंने पाया जो कवि-कल्पना से भी परे था। असाधारण सौंदर्य और शालीनता के साथ-साथ असाधारण शौर्य और साहस का सामंजस्य- ऐसा आकर्षक व्यक्तित्व जो इस दुनिया में ढूंढने पर मुश्किल से मिलेगा। सबकुछ तो सहज ही उपलब्ध था भगवतीचरण को। नेशनल काॅलेज, लाहौर में इनके मित्र और सहपाठी थे भगतसिंह और सुखदेव। लाला लाजपत राय इनकी प्रतिभा के कायल थे और उनका विशाल पुस्तकालय इनके लिए सदैव खुला रहता था। सैद्धांतिक ज्ञान और विवेचन में, लेखक और वक्ता के रूप में, भगवतीचरण अपने सब साथियों में अद्वितीय थे। बृहत् अध्ययन और गंभीर चिंतन, शांत और सरल स्वभाव, सबको समेट कर चलने और चलाने की अद्भुत क्षमता, संगठन और सिद्धांतों के लिए सबसे आगे बढ़कर सदैव अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को उद्धत- इन्हीं गुणों के कारण वे अपने समय के सभी क्रांतिकारियों के भाई बन गए थे और इसी प्रकार दुर्गावती देवी भी सबकी भाभी बन गई थीं। भगवती भाई, उनका घर-परिवार, धन-संपत्ति सबकुछ पार्टी को अर्पण थे।...

1929-30 में लाहौर सेंट्रल जेल की फांसी की कोठरी में बंद भगत सिंह जल्लाद की रस्सी का इंतजार कर रहा था। बाहर पार्टी ने निश्चय किया कि जान पर खेलकर सरदार को जेल और पुलिस के पंजे से मुक्त कराना है, जो बड़ा जोखिम का काम था। गोलियां चलेंगी, बम फटेंगे, कुछ हमारे साथी मरेंगे, कुछ पुलिस के जवान मारे जाएंगे। पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों ने आग्रह किया कि पार्टी का ‘संचालक मस्तिष्क’ खतरे से बाहर रखा जाए। किंतु, भगवती भाई बिल्कुल सहमत न हुए। उनका प्रबल अनुरोध और आग्रह था कि वे इस लड़ाई की अगली कतार में रहेंगे। और वे अगली कतार में रहे भी। 

उनके जीवन को समझने और समझाने वाली अनेक घटनाओं में से एक स्मृतिपट पर सबसे अधिक उभरकर आती है। 1929 की जनवरी और मार्च में मेरठ तथा लाहौर षड्यंत्र के अभियोग में बहुत-से कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी नौजवान गिरफ्तार होकर जेल में बंद थे। भगवती भाई पर वारंट था। वह फरार हो गए। आगे-आगे वह भाग रहे थे और उनके पीछे पुलिस और खुफिया विभाग के हथियारबंद जवान। ऐसे समय में भगवती भाई से कहा गया कि वे रूस चले जाएं और इसके लिए साधन और सुविधाएं नियोजित की गईं। लेकिन भगवती भाई ने इनकार कर दिया। बोल वह: ‘‘आज देश की आजादी और इंकलाब के लिए मेरे खून की जरूरत है। मैं खून दूंगा, अपने देशवासियों के बीच रहकर खून दूंगा। मैं हरगिज बाहर नहीं आऊंगा।’’ और उन्होंने अपने खून की एक-एक बूंद क्रांति के लिए दी। 

(यह भगतसिंह के साथी जयदेव कपूर के लंबे स्मृति-लेख का थोड़ा संक्षिप्त रूप है। )

Thursday, 7 January 2016



समकालीन जनमत, जनवरी 2016 




पहला पन्ना 
हमारे वतन की नई जिंदगी हो

आवरण कथा 
दुहरा आजीवन कारावास और प्रिकोल श्रमिकों का संघर्ष 



सामयिकी 
आज के दौर में वामपंथ की भूमिका- प्रणय कृष्ण/ दीपंकर भट्टाचार्य

संस्थागत दंगा मशीनरी- इरफान इंजीनियर

देश का दुश्मन नहीं है भारतीय मुसलमान- भंवर मेघवंशी

हिंदुत्ववाद को चाहिए उन्माद- सुधीर सुमन

भाजपा फिर राम (मंदिर) भरोसे- मनोज कुमार सिंह

बुरे फंसे मोदी के चाणक्य- महेंद्र मिश्र

पड़ोस क्या हिंदू राष्ट्र नहीं बनने से ‘मोदी जी’ हैं नाराज!- मनोज कुमार सिंह

शिक्षा आत्महत्या की शिक्षा- प्रेमपाल शर्मा

गतिविधि पटना फिल्मोत्सव, प्रेमचंद की कहानी पर संगोष्ठी (इलाहाबाद)



कवि विद्रोही की स्मृति

मैं जिंदा हूं और गा रहा हूं- प्रणय कृष्ण

लाल सलाम कामरेड विद्रोही- कविता कृष्णन

कवि, विद्रोही और ड्राप आउट- संदीप सिंह

विद्रोही की काव्यभूमि- बृजेश यादव

जिस विद्रोही को हम प्यार करते थे...- पल्लवी पाॅल

दिया बहुत-बहुत ज्यादा, लिया बहुत-बहुत कम- मृत्युंजय

कवि की बेटी- राधिका मेनन

विद्रोही की याद में कविताएं- दिनेश कुमार शुक्ल, राधिका, दीपक सिंह

श्रद्धांजलि ब्रह्मदेव शर्मा, पंकज सिंह- कौशल किशोर

कविताएं जैसे पवन पानी: पंकज सिंह

विद्रोही की कविताएं

संपर्क- 267, पुराना कटरा, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश- 211002
मोबाइल- 9450703296, 09431685572
वार्षिक सदस्यता- 200रु., एक प्रति- 20रु

Wednesday, 14 October 2015

सत्य से सत्ता के युद्ध का रंग है ...


लेखकों, कलाकारों द्वारा पुरस्कार वापसी पर जन संस्कृति मंच का बयान

जन संस्कृति मंच उन तमाम साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का स्वागत करता है जिन्होंने देश में चल रहे साम्प्रदायिकता के नंगे नाच और उस पर सत्ता-प्रतिष्ठान की आपराधिक चुप्पी के खिलाफ साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी के पुरस्कारों तथा पद्मश्री आदि अलंकरण लौटा दिए हैं. जन संस्कृति मंच साहित्य अकादमी की राष्ट्रीय परिषद् तथा अन्य पदों से इस्तीफा देनेवाले साहित्यकारों को भी बधाई देता है जिन्होंने वर्तमान मोदी सरकार के अधीन इस संस्था की कथित 'स्वायत्तता' की हकीकत का पर्दाफ़ाश कर दिया है. जिस संस्था के अध्यक्ष इस कदर लाचार हैं कि प्रो. कलबुर्गी जैसे महान 'साहित्य अकादमी विजेता' लेखक की बर्बर हत्या के खिलाफ अगस्त माह से लेकर अबतक न बयान जारी कर पाए हैं और न ही दिल्ली में एक अदद शोक-सभा तक का आयोजन, उस संस्था की 'स्वायत्तता' कितनी रह गयी है? आखिर किस का खौफ उन्हें यह करने से रोक रहा है? के. सच्चिदानंदन द्वारा उनको लिखा पत्र सब कुछ बयान कर देता है, जिसका उत्तर तक देना उन्हें गवारा न हुआ. सितम्बर के पहले हफ्ते में भी विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधि अकादमी के अध्यक्ष से दिल्ली में मिले थे और उनसे आग्रह किया था कि प्रो.कलबुर्गी की शोक-सभा बुलाएं. आज तक उन्होंने कुछ नहीं किया.

भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् हो या पुणे का फिल्म इंस्टिट्यूट, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी हो या भारतीय विज्ञान परिषद्, आई.आई.एम और आई.आई.टी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान हों अथवा तमाम केन्द्रीय विश्विद्यालय तथा राष्ट्रीय महत्त्व के ढेरों संस्थान- शायद ही किसी की भी स्वायत्तता नाममात्र को भी साम्प्रदायिक विचारधारा और अधिनायकवाद के आखेट से बच सके. ऐसे में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता की दुहाई देकर अकादमी पुरस्कार लौटानेवालों को नसीहत देना सच को पीठ दे देना ही है.

2014 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मुज़फ्फरनगर में अल्पसंख्यकों के जनसंहार के बाद से लेकर अब तक हत्याओं का निर्बाध सिलसिला जारी है. पैशाचिक उल्लास के साथ हत्यारी टोलियाँ दादरी जिले के एक छोटे से गाँव में गोमांस खाने की अफवाह के बल पर एक निरपराध अधेड़ मुसलमान का क़त्ल करने से लेकर पुणे-धारवाड़-मुंबई-बंगलुरु जैसे महानगरों तक अल्पसंख्यकों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आखेट करती घूम रही हैं. बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों के नाम पर 'डेथ वारंट' जारी कर रही हैं. घटनाए इतनी हैं कि गिनाना भी मुश्किल है. इनके नुमाइंदे टी.वी. कार्यक्रमों में प्रतिपक्षी विचार रखनेवालों को बोलने नहीं दे रहे, खुलेआम धमकियां और गालियाँ दे रहे हैं. सोशल मीडिया पर इनके समर्थक किसी भी लोकतांत्रिक आवाज़ का गला घोंटने और साम्प्रदायिक घृणा का प्रचार करने में सारी सीमाएं लांघ गए हैं. कारपोरेट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन कृत्यों को चंद हाशिए के सिरफिरे तत्वों का कारनामा बताकर सरकार की सहापराधिता पर पर्दा डालना चाहता है. क्या इन कृत्यों का औचित्य स्थापन करनेवाले सांसद और मंत्री हाशिए के तत्व हैं? लेकिन छिपाने की सारी कोशिशों के बाद भी बहुत साफ़ है कि इतनी वृहद योजना के साथ पूरे देश में, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, असम से गुजरात तक निरंतर चल रहे इस भयावह घटनाचक्र के पीछे सिर्फ चन्द सिरफिरे हाशिए के तत्वों का हाथ नहीं, बल्कि एक दक्ष सांगठनिक मशीनरी और दीर्घकालीन योजना है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में 16 मई, 2014 के बाद से सैकड़ों छोटे बड़े दंगे प्रायोजित किए जा चुके हैं. खान-पान, रहन-सहन, प्रेम और मैत्री की आज़ादी पर प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं. गुलाम अली के संगीत का कार्यक्रम आयोजित करना या पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री की पुस्तक का लोकार्पण आयोजित कराना भी अब खतरों से खेलना जैसा हो गया है. त्योहारों पर खुशी की जगह अब खौफ होता है कि न जाने कब, कहाँ क्या हो जाए. भारत एक भयानक अंधे दौर से गुज़र रहा है. अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि जीने का अधिकार भी अब सुरक्षित नहीं.

आज़ाद भारत में पहली बार एक साथ इतनी तादाद में लेखकों-लेखिकाओं और कलाकारों ने सम्मान, पुरस्कार लौटा कर और पदों से इस्तीफा देकर 'सत्य से सत्ता के युद्ध' में अपना पक्ष घोषित किया है. यह परिघटना ऐतिहासिक महत्त्व की है क्योंकि सम्मान वापस करनेवाले लेखक और कलाकार दिल्ली, केरल, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड, बंगाल, कश्मीर आदि तमाम प्रान्तों के हैं. वे कश्मीरी, हिन्दी, उर्दू, मलयालम, मराठी, कन्नड़, अंग्रेज़ी, बांगला आदि तमाम भारतीय भाषाओं के लेखक-लेखिकाएं हैं. उनका प्रतिवाद अखिल भारतीय है. उन्होंने अपने प्रतिवाद से एक बार फिर साबित किया है कि सांस्कृतिक बहुलता और सामाजिक समता और सदभाव, तर्कशीलता और विवेकवाद भारतीय साहित्य का प्राणतत्व है. रूढ़िवाद और यथास्थितिवाद का विरोध इसका अंग है. इन मूल्यों पर हमला भारतीयता की धारणा पर हमला है. हमारी आखों के सामने अगर एक पैशाचिक विनाशलीला चल रही है, तो उसका प्रतिरोध भी आकार ले रहा है. हमारे लेखक और कलाकार जिन्होंने यह कदम उठाया है, सिर्फ इन मूल्यों को बचाने की लड़ाई नहीं, बल्कि भविष्य के भारत और भारत के भविष्य की लड़ाई को छेड़ रहे हैं.

आइये, उनका साथ दें और इस मुहिम को तेज़ करें.

राजेन्द्र कुमार ( अध्यक्ष , जन संस्कृति मंच )
प्रणय कृष्ण (महासचिव,जन संस्कृति मंच)

Friday, 12 June 2015

जसम का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन

जन संस्कृति मंच का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन
31जुलाई- 01अगस्त, 2015

इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि 
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौन्दर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति,
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद-
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ, सुन्दर जाल-
केवल एक जलता सत्य देने टाल

मुक्तिबोध : 
'पूंजीवादी समाज के प्रति' शीर्षक कविता (1940- 42) से 


2015  के भारत के नए 'कंपनी राज' के नेताओं-कारिंदों की मानें तो तमन्नाओं और हसीन सपनों, इसी धरती पर स्वर्ग का आनंद लेने, फैशन, लाइफस्टाइल और अंतहीन उपभोग के विश्व-प्रतिमानों को छू लेने का समय भारतवासियों के लिए आ गया है. बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, आठ लेन की सड़कें, खूबसूरत विश्वस्तरीय कारें, क्लब, पब, होटल और अपार्टमेंट्स, हैरतंगेज़ उपभोक्ता वस्तुएं जिनके लिए 'इंडिया' का दिल धड़कता है, अब हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही हैं. अच्छे दिन आ गए हैं. पूंजीवाले सारी दुनिया से आ रहे हैं 'नया इंडिया' बनाने. हमें बस उन्हें अपनी प्राकृतिक और बौद्धिक संपदा मुक्त हाथों से सौंप देनी है. दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा बेरोजगार और गरीब यहाँ रहते हैं, वे असंभव सी मजदूरी दर पर काम करके 'हमारे' सपनों का भारत बना डालेंगे.

भारत का वर्तमान 'कंपनी राज', अपना अलग 'ज्ञान-काण्ड' रच रहा है, सौन्दर्य के अपने प्रतिमान निर्मित कर रहा है. मुनाफे के लिए अबाध लूट को 'सबका विकास' बता रहा है, जबकि विकास दर की बुलंदियों के वर्षों में भी औसत हिन्दुस्तानी की खाद्य ज़रुरत (कैलोरी इंटेक) में लगातार कमी यानी गरीबों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है. पिछले एक साल में किसान आत्महत्या कुछ प्रदेशों से बाहर निकलकर पूरे भारत की परिघटना बन गयी है. यही वे जलती सच्चाइयां हैं जिन्हें टाल देने को एक अद्भुत सुन्दर जाल बिछाया गया है. लगता ही नहीं कि दुनिया के सबसे ज़्यादा गरीब, सबसे ज़्यादा बेरोजगार, सबसे ज़्यादा निरक्षर इसी देश के रहनेवाले हैं.

यह एक बहुत पुराना देश है हमारा जहां खेत-खलियान, नदियाँ, पहाड़, जंगल और मनुष्य- सब का अब एक ही मूल्य निश्चित किया जा रहा है- वह यह कि वे 'मुनाफे की सभ्यता' के कितने काम के हैं, कितने नहीं. इनके मालिक अब देशवासी नहीं , बल्कि देशी-विदेशी पूंजी के सरदार होंगे. भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) के दौरान अजीमुल्ला खान द्वारा रचित राष्ट्रीय गीत की पहली पंक्ति थी- 'हम हैं मालिक इसके हिन्दोस्तान हमारा'. अब इस देश की मालिक हैं 'कम्पनियां'. इन कंपनियों के मुनाफे की प्यास बुझाने के लिए कितने खेत-खलियान काम आएँगे, कितनी नदियाँ बांधी, उलीची या कचरों से पाटी जाएँगी, कितने पठार-पहाड़ धरती के गर्भ में छिपी निधियों की लूट के लिए तोड़े जाएंगे, कितने जंगल मुनाफे की आग मे जलेंगे और कितने मनुष्य जो इन पर निर्भर हैं अपनी जड़ों और जीविका के साधनों से उखाड़े जाएंगे, इनका आकलन, सर्वेक्षण करके पूंजी के सरदारों को सौंपना आज 'ज्ञान' कहला रहा है. प्रकृति और मनुष्य के श्रम (शारीरिक और बौद्धिक) को पूंजी के मुनाफे में तब्दील करने में बहुत सा प्रबंधन, बहुत सा शोध, बहुत सा कौशल, बहुत सी प्रौद्योगिकी, बहुत सी कला, बहुत सा ज्ञान-विज्ञान लगा है और यही आज की 'नॉलेज सोसायटी' का क्रिया-व्यापार है.

अब अंतिम तौर पर यह बात समझ लेने की है कि शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, हवा. भोजन और मकान जैसी चीज़ें नागरिकों का अधिकार नहीं है, जिन्हें सुनिश्चित करने को सरकारें चुनी जाती हैं. अब ये सब चीज़ें पूंजी के मालिकों से खरीदनी होंगीं और उन्हीं के लिए और उसी अनुपात में उपलब्ध होंगी जिनके पास जितने लायक पैसा है. यही 'गवर्नेंस' है.

पिछले 25 सालों से जारी भारत के भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में पिछला साल एक नया और खतरनाक मोड़ लेकर उपस्थित हुआ. विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (2008, 2011) से पूंजी के मुनाफे की दरों की बढ़त में रुकावट आई. मुनाफे को बढाने का एकमात्र तरीका था प्राकृतिक संसाधनों की लूट और श्रमशक्ति के अबाध शोषण के रास्ते में आनेवाली हर बची खुची बाधा को निर्ममता के साथ ख़त्म करना. श्रम क़ानून और मनरेगा जैसी योजनाएं श्रमशक्ति की लूट में बाधा थीं और भूमि अधिग्रहण क़ानून, वन अधिकार क़ानून, खाद्य सुरक्षा कानून आदि प्राकृतिक संसाधनों की लूट के रास्ते की रुकावटें थीं. इस लूट-पाट पर निगरानी रखने और जनता की नज़र में लानेवाले सूचना के अधिकार जैसे क़ानून और न्यायपालिका, सी.वी.सी., सी.ए.जी. आदि संस्थाओं को निष्प्रभावी बनाना ज़रूरी था, अर्थजगत में अभी भी बहुत कुछ ऐसा बच गया था जिसे निजी पूंजी के हवाले किया जाना था. यह सब जो कारगर ढंग से कर सके और साथ ही साथ जनता को रंगीन सपने बेचते हुए जन-आन्दोलनों का निर्भीक तरीके से दमन कर सके, लोकतांत्रिक आवरण में ऐसे अधिनायकवाद की कारपोरेट मांग 'मोदी परिघटना' के रूप में सफल हुई.

पूंजी की सता आज निरंकुश आत्मविश्वास से भर कर बोल रही है, "सब हमें चुपचाप सौंप दो! किसानों! जमीन लेने से पहले, हम तुमसे पूछेंगे नहीं. जंगलों और पहाड़ों पर रहनेवालों! तुम्हारे पहाड़ों और जंगलों का मूल्य हम जानते हैं, इन्हें हमारे लिए खाली करो, हम तुमसे पूछेंगे नहीं. मजदूरों, श्रम कानूनों के चलते जो कुछ सुरक्षाएं तुम्हें मिली हुईं थी, अब वे बीते दिनों की बातें होंगी. तुम्हारी संगठित सौदेबाजी, तुम्हारी हड़तालों के दिन लद चुके हैं. देखो, हम खेत, खलियानों, जंगल, पहाड़ों से कितनी बड़ी तादाद में उखड़े हुए लोगों की फ़ौज खड़ी कर रहे है, हमारे लिए काम करने के लिए. मुनाफे की राह में सारी बाधाएं दूर करने का हमें 'जनादेश' मिला है. तुम जिसे मुनाफ़ा कह रहे हो, वही 'विकास' है. अधिकारों और संघर्षों के लिवे सड़क पर उतरनेवालों, सावधान! संविधान में प्रदत्त अधिकार दमन से तुम्हारी रक्षां नहीं कर सकेंगे." सच है कि तीसरी दुनिया के देशों में नव-उदारवाद का काम पूंजीवादी लोकतंत्र के अपेक्षया उदार रूप से नहीं , बल्कि अंततः तानाशाही रूप से ही चला करता है.

विकास एक खूबसूरत गुब्बारा है, जो मीडिया के आसमान में बुलंदियों को छू रहा है. मीडिया का बड़ा हिस्सा किसी भी समय से ज़्यादा अब पूंजी के घरानों के हाथ में है. कारपोरेट मीडिया लूट की डोर से बंधी झूठ की पतंग की मानिंद हमारी चेतना के आकाश में लहरा रहा है. लूट और झूठ के साथ टूट और फूट वर्तमान कारपोरेट सत्ता-संस्कृति के प्रमुख अस्त्र हैं. जो लोग सिर्फ 'सूट-बूट' से उसकी शिनाख्त कर रहे हैं, वे 'लूट-झूठ-टूट-फूट' में खुद की संलिप्तता पर पर्दा डाल रहे हैं. राष्ट्रीय, जातिगत, लैंगिक, धार्मिक, नस्लीय और क्षेत्रीय पहचानों और आकांक्षाओं को शान्ति, बराबरी, सौहार्द्र की जगह आपसी वैमनस्य, हिंसा और प्रतिशोध की दिशा में नियोजन अब सूचना और संचार के आधुनिकतम साधनों के ज़रिए भारी प्रबंध-कुशकता के साथ किया जा रहा है. व्हाट्स एप्प या इंटरनेट पर फर्जी तस्वीरें या वीडियो अपलोड करके दंगे कराए गए हैं, हत्याएं की गयी हैं. प्रशिक्षित स्थानीय साम्प्रदायिक टोलियाँ टूट-फूट या तोड़-फोड़ की कार्यवाहियों में दुगुने आत्मविश्वास से जुटी हुई हैं- 'सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का'. सांप्रदायिक उन्माद की गुंजायश तलाशते सत्ताधारी सांसद, मंत्री, प्रवक्ता अपने बयानों से इन टोलियों को उत्साहित करते हैं. कभी अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक धर्म में 'घरवापसी' की सीख दी जाती है, कभी उन्हें मताधिकार से वंचित करने की धमकी, तो कभी उनके धर्मस्थलों को हमले का निशाना बनाया जाता है. कारपोरेट लाभ-लोभ के विरुद्ध काम करनेवालों या फिर सत्ता-प्रेरित साम्प्रदायिक गतिविधियों के विरुद्ध लड़नेवाले सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं को फर्जी मामलों में फंसाने में राजसता का सीधा उपयोग अब आम बात है.

आज आलोचना की संस्कृति का ध्वंस या उसे निष्प्रभावी बनाने के नित नए हथकंडों का आविष्कार और उन्हें आजमाया जाना बताता है कि 'जलती हुई सच्चाइयों' के साक्षात्कार को टाल देने के कितने भी निपुण प्रयास पूंजीवादी समाज करता हो, वह मानवीय विवेक-बुद्धि की प्रतिरोधी आलोचनात्मक चेतना को अंततः हर नहीं सकता, अतः दमन का सहारा लेना ज़रूरी हो उठता है. यह संभव नहीं कि जिस समाज का तेज़ी से 'स्वत्वहरण' किया जा रहा हो, 'लूट-झूठ-टूट-फूट' की सत्ता-संस्कृति जिसे भौतिक और चेतनागत धरातल पर विघटित कर रही हो, उसका कोई भी हिस्सा इसके बारे में विवेकपूर्ण ढंग से न सोचे और इस प्रक्रिया की आलोचना न करे. 'जलते सच' को देखने और दिखाने के लिए बुद्धि-विवेक की आँखें चाहिए. समाज की इन आँखों को अंधा करने के लिए, उनकी विवेक-बुद्धि को हर लेने के लिए, उनकी वर्तमान दुरावस्था की क्षतिपूर्ति के बतौर अतीत की रमणीय मिथकीय कल्पनाओं की आपूर्ति करने से लेकर एक भ्रष्ट और उन्मादी इतिहास-बोध में समाज को दीक्षित करने का काम शिक्षा, संस्कृति और नागरिक समाज की विभिन्न संस्थानों के ज़रिए सरकार तेज़ी से करने में जुटी हुई है. इस सत्ता-संस्कृति के दोनों बाजुओं यानी कारपोरेट लोभ और साम्प्रदायिक उन्माद, किसी भी पक्ष के प्रति आलोचनात्मक चेतना का निर्माण करनेवाले संस्कृतिकर्मियों को अपमानित, प्रताड़ित और असहाय बनाना इस सत्ता-संस्कृति की ज़रुरत है. किताबों को जलाना, नाटकों का मंचन रोक देना, फिल्मों का प्रदर्शन, सभाओं और सेमिनारों को बाधित करने की तो एक परम्परा ही बन गयी है, जो अब प्रत्यक्ष सता-संरक्षण में उफान पर है.

आज एक नया विमर्श रचने की ज़रुरत है. स्वतंत्रता, समानता, नागरिक अधिकार, सामाजिक न्याय, अभिव्यक्ति और सृजन की आज़ादी, आर्थिक स्वावलंबन और धर्मनिरपेक्षता के विमर्श, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के सभी रूपों के अंत के सपने कभी पुराने नहीं पड़ेंगे, लेकिन उन्हें भी मानव-मुक्ति के वर्तमान युग-धर्म के रूप में नया विन्यास चाहिए. हम संस्कृतिकर्मी अपने समस्त कला-कर्म, सृजन और संघर्ष के सभी रूपों की मार्फ़त इस नूतन विन्यास को रच सकें, इसी मंथन और तैयारी के लिए हम 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रेमचंद जयंती (31जुलाई) और 01अगस्त को दिल्ली में मिल रहे हैं. आपका साथ हमारी ताकत और संबल होगा.

( जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद् द्वारा जारी)   

Tuesday, 2 June 2015

नव उदारवादी नीतियों का यथार्थ और श्रमिक वर्ग की चुनौती - कुमार स्वामी


[समकालीन जनमत के जून अंक से] 

(आल इंडिया सेंट्रल काउंसिल आफ ट्रेड यूनियंस (ऐक्टू) का 9वां राष्ट्रीय सम्मेलन 4-6 मई को पटना के रवीन्द्र भवन में आयोजित हुआ। इसका नयापन यह था कि सम्मेलन शुरू होने से पहले 4 मई को स्थानीय गांधी मैदान से मजदूर-किसान अधिकार मार्चनिकाला गया, जो आर. ब्लाक चैराहे पर आकर एक विशाल जनसभा में तब्दील हो गया। चिलचिलाती धूप के बावजूद इस मार्च और सभा में सम्मेलन के प्रतिनिधियों व अतिथियों समेत हजारों की तादाद में मजदूरों और मेहनतकश किसानों ने भाग लिया। मार्च का नेतृत्व ऐक्टू के महासचिव का. स्वपन मुखर्जी, राष्ट्रीय अध्यक्ष एस कुमारस्वामी, ग्रीस में कटौती-छंटनी के खिलाफ चले आंदोलन के नेता निकोलस, नेपाल से कुलबहादुर खत्री व कमलेश झा और बांग्लादेश के मजदूर नेता तपन दत्ता आदि नेता कर रहे थे। इस सभा को इन नेताओं के अलावा भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने भी संबोधित किया। इस सम्मेलन की दूसरी खासियत यह थी कि कांग्रेस और भाजपा से संबद्ध ट्रेड यूनियनों को छोड़, जिन्हें आमंत्रित नहीं किया गया था, शेष सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के प्रमुख नेता सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर मंच पर उपस्थित थे। सबने सम्मेलन को संबोधित किया और दो बातों का सबने अपने भाषण में उल्लेख किया - किसान-मजदूर रैली और ऐक्टू के अध्यक्ष कुमार स्वामी द्वारा बतौर उद्घाटन दिये गये भाषण का। पूरी रिपोर्ट देने की जगह हम यहां उस उद्घाटन भाषण का अविकल अनुवाद दे रहे हैं।)
साथियों,
ओपेन वेन्स आफ लैटिन अमरीकाः फाइव सेंचुरी आफ पाइलेज आफ द कांटीनेंटके लेखक एडुआर्डो गेलयानो ने लिखा था यथार्थ, नियति नहीं होता, एक चुनौती होता है। हम इसे स्वीकार करने के लिए अभिशप्त नहीं हैं।

समूची दुनिया के लोग और देश वित्तीय पूंजी के नव-उदारवादी नीतियों द्वारा लादे गए यथार्थ को चुनौती दे रहे हैं, उसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

लैटिन अमरीका की गुलाबी लहरके बाद अब यूरोप का नंबर है। ग्रीस में सत्ता-परिवर्तनने उल्टी दिशा ले ली है। स्पेन के लोग सम्मान के साथ खाना, नौकरी और छत की मांग कर रहे हैं और यह दिखाने के लिए कि कटौती बहादुर सरकारके आखिरी दिन आ चुके हैं, टिक-टैक टिक-टैक की धुन गा रहे हैं। पुरानाऔर नया’, दोनों यूरोप कटौतियों के खिलाफ जनपक्षधर बदलावों की लड़ाई के अखाड़े में बदल रहे हैं। लैटिन अमरीका का साम्राज्यवाद-विरोधी जनपक्षधर जुलूस जारी है। अमरीका को क्यूबा से समझौते में जाना पड़ रहा है। कुछ सालों पहले अमरीका में ऋणग्रस्तता न सिर्फ जिंदगी की गुणवत्ता को बेहतर बनाने की शर्त बन गई, बल्कि जिंदगी की मूलभूत चीजों के लिए भी कर्जे की जरूरत पड़ने लगी। हर तरह की संपत्ति और आमदनी को पूंजीखोर कर्ज के कंबल से ढँकने लगे। नतीजे में आज की तारीख में अमरीका में पाँच करोड़ लोग छात्र-कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं।   

99 फीसदी के खिलाफ 01 फीसदी आक्यूपाई आंदोलन से जो जन-ऊर्जा निकली थी उसने अपना रंग दिखाया और पूरे अमरीका में न्यूनतम मजदूरी 15 डालर प्रति घंटे की मांग के आंदोलन फैल गए। यूरोप में न्यूनतम मजदूरी और आमदनी में गैर-बराबरी को कम करने के मुद्दों पर आंदोलन हो रहे हैं। एशिया में इन्डोनेशिया जैसा देश, जहां एक समय में कम्युनिस्टों और उनके समर्थकों का बदतरीन नरसंहार किया गया, कुछ दशकों बाद अब जकार्ता और दूसरे शहरों की सड़कों पर न्यूनतम मजदूरी की मांग को लेकर लाखों मजदूरों के जबर्दस्त आंदोलन का गवाह है। लगातार न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के बाद भी चीन में मजदूरी और सेवा-स्थितियों को लेकर 2014-2015 में ढेरों छोटी-छोटी हड़तालें हुईं।  
 
वित्तीय पूंजी ग्रीस को पेंशन, जन-रोजगार और सार्वजनिक क्षेत्रों में बड़ी कटौती करने को बाध्य करने की कोशिश कर रही है पर ग्रीस के लोग इस षड्यंत्र को चकनाचूर करने के लिए कमर कसे हुए हैं। वे दिखा देना चाहते हैं कि कोई भी कर्जदार देश कड़े कटौती उपायोंका विरोध कर के ग्रीस के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है। 
   
दुनिया की आर्थिक हालत में भी बदलाव आ रहा है। ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और दक्षिण अफ्रीका महासंघ) के अलावा चीन, सिल्क रोड पहलकदमी ले रहा है और शंघाई को-आपरेशन एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) जैसे प्रयोग कर रहा है। 500 करोड़ रूपये की प्रारम्भिक पूंजी के साथ शुरू हुई इस पहल में चीन ने 500 करोड़ रूपये और लगाने का वादा किया है। दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंग्डम, फ्रांस, इटली, स्विट्जरलैंड, लकजेमबर्ग और जर्मनी जैसे अमरीका के दोस्त कतार बांधकर एआईआईबी की पहल में शामिल होने को बेताब हैं। अपने गुस्से को बमुश्किल छुपाते हुए अमरीका का इस पहल पर कहना था कि हम चीन की बढ़ती दखलंदाजी पर लगातार नजर रखे हुए हैं। उभरती हुई ताकत के लिहाज से यह तरीका अच्छा नहीं है।

अमरीका के नेतृत्व में चल रहे आतंक के खिलाफ युद्धने तालिबान, अल कायदा एयर आईएसआईएस जैसे भस्मासुर पैदा किए हैं। लोग सीरिया और लीबिया छोड़कर भाग रहे हैं। 2014 में 3500 लोगों की जिंदगी और उनके सपने मेडिटरेनियन समुद्र की गहराईयों में दफन हो गए। 2015 में 1500 लोग हलाक हुए। यूरोप को आंतरिक मंदी की सनक से बाहर निकालना होगा, दृढ़ता से इसके अनचीन्हे भय का सामना करते हुए लोगों को इस भंवर से बाहर निकालना होगा।

सुनामी, बाढ़ और भूकंप और इन सबसे ज्यादा खतरनाक बहुदेशीय आपदा साम्राज्यवाद, से लड़ने के लिए दक्षिण एशियाई देश एकताबद्ध हो रहे हैं।

भयानक आर्थिक संकट, अनवरत वैश्विक युद्ध, बढ़ते पर्यावरणीय संकट आतंकवाद के कसते शिकंजे और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप अमरीका की अगुवाई में चल रही नव-उदारवादी नीतियों के फल हैं। दुनिया भर में जनांदोलनों और लोकप्रिय प्रतिरोधों में अभिव्यक्त होने वाले मजदूर और पूंजी के बीच के संघर्षों और वित्तीय पूंजी की तानाशाही को चुनौती देने वाले देशों से इस नव-उदारवादी हमले का जवाब दिया जा रहा है।

भारत में एक साल बीतते न बीतते मोदी सरकार का रास्ता कठिनतर होता जा रहा है। लोग यह बात मानने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर में कुछ अंकों के उतार-चढ़ाव से देश का विकास नापा जा सकता है। भारत को धीमी चाल से चलने वाले हाथी की जगह मोदी शिकार की ताक में निकले शेर की तरह दिखाना चाहते हैं। मेक इन इंडियाऔर कुछ नहीं, हमारे प्यारे देश के प्राकृतिक और मानवीय संसाधन की लूट के लिए पूंजी को खुला न्योता है, जमीन और श्रम अधिकारों पर हमला है, खाद्य सुरक्षा पर हमला है। मेक इन इंडियाऔर कुछ नहीं, लोगों को बेदखल कर कुछ लोगों के संपत्ति बटोरने का जाल है।

यह सही है कि नव-उदारवादी एजेंडा पिछले कुछ दशकों से जारी है पर मोदी सरकार ने इस एजेंडे को लागू करने में गुणात्मक और मात्रात्मक बदलाव किए हैं। सरकार पाँच एकड़ से कम जोत वाले किसानों को खेती छुड़वाने की उतावली में है, मध्यवर्ग से सब्सिडी (राहत) छोड़ने को कह रही है। सरकार चाहती है कि लोग उससे कोई आशा न रखें। जमीन अधिग्रहण के लिए वह ग्राम सभा के अस्सी फीसदी लोगों की सहमति और सामाजिक प्रभाव के अध्ययन के प्रावधान हटाना चाहती है।

यह सरकार उजाड़ने और विध्वंस करने में व्यस्त है। बाबरी मस्जिद को जमींदोज करने वाली ताकतें ही आज सार्वजनिक क्षेत्र, योजना आयोग, सौदा करने की सामुदायिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं को जमींदोज कर रही हैं। भारत के रेल, रक्षा और वित्त जैसे क्षेत्रों को कमजोर कर रही हैं। मौजूदा श्रम कानूनों को तबाह करते हुए नए मजदूर-विरोधी कानून बना कर यही ताकतें मजदूर-अधिकारों के खिलाफ घोषित युद्ध छेड़े हुए हैं।    

दरअसल मेक इन इंडियाका मतलब देशी और विदेशी कोरपोरेटों के लिए रक्षा-उत्पाद क्षेत्र को खोलना है। अनिल अंबानी ने मोदी का हवाला देते हुए कहा कि देश में आंसू गैस तक नहीं बनती, इससे वे बड़े दुखी थे। लेकिन आंसू गैस के न बनने पर आंसू बहाने की जरूरत अब न अंबानी को है न मोदी को क्योंकि अब रक्षा उत्पादों की मिठाई का हिस्सा अंबानी, टाटा और महिंद्रा जैसी कंपनियों को मिलने वाला है। अनिल अंबानी तीन सी (सीबीआई, सीवीसी और सीएजी) के खिलाफ हल्ला बोल रहे हैं। इससे भारत में अनियंत्रित पूंजीवादी लूट की भविष्य-दिशा का पता चलता है। मोदी सरकार अमरीका और इजराइल से हथियार और युद्ध के साजो-सामान खरीदती है, अगले दिन फ्रांस से 36 रफाएल युद्धक विमान खरीदने के समझौते पर दस्तखत करती है और इस तरह खुद के ही मेक इन इंडियाका भी मजाक उड़ाती है। 

रघुराम राजन और वित्तीय जादूगर अरविंद सुब्रमणियम वित्तीय क्षेत्र की चापलूसी में एक दूसरे को पीछे छोड़ देने की मुहिम में लगे हैं। अरविंद सुब्रमणियम का कहना है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण भारतीय अर्थव्यवस्था के गले की फांस है, वहीं दूसरी तरफ उनके जोड़ीदार राजन साहब फरमाते हैं कि इस (बैक राष्ट्रीयकरण) परंपरा को उलटना ही रिजर्व बैंक का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यभार है।

चूंकि श्रम संविधान की समवर्ती सूची का विषय है और राज्य सरकारें निवेश हासिल करने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर रही हैं, इसलिए मोदी सरकार, राज्य सरकारों के साथ मिलकर श्रम कानूनों पर हमले कर रही है। हमलावरों के इस गिरोह का अगुआ राजस्थान है। राजस्थान ने ट्रेड यूनियन्स ऐक्ट, इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स ऐक्ट, कांट्रैक्ट लेबर (एबालीशन एंड रेगुलेशन) ऐक्ट और फैक्ट्री ऐक्ट में संशोधन कर दिया है। केंद्र सरकार ने स्माल फैक्टरीज बिललाते हुए एक ही वार में चालीस से कम कामगारों वाली फैक्ट्रियों को चैदह श्रम कानूनों से मुक्त कर दिया। संशोधित अप्रेंटिसेज ऐक्ट एक और बानगी है कि सरकार नियमित स्थायी कर्मचारियों के साथ क्या करने की कोशिश कर रही है।

लोकतंत्र पर शातिर हमले हो रहे हैं।मोदी ने उच्चतम न्यायालय से कहा कि वह पांच-सितारा कार्यकर्ताओं के सामने न झुके। यह कहते हुए मोदी उच्चतम न्यायालय पर पोशीदा दबाव डाल रहे हैं कि जिन मामलों में सरकार चाहती है, उनपर न्यायालय उसका साथ दे- मसलन तीस्ता शीतलवाड़ की जमानत की नामंजूरी और कारपोरेट घोटालों के मामले पर सुस्ती। गुजरात सरकार का कंट्रोल आफ टेररिज्म एंड आर्गनाइज्ड क्राइम्स अध्यादेश टाडा और पोटा का नवेला संस्करण है। इस विधेयक के मुताबिक बगैर आरोप के किसी को 180 दिनों के लिए गिरफ्तार रखा जा सकता है। इस कानून का पालन करने के प्रयोजन से और नेकनीयती से किए गए किसी भी काम पर मुकदमा नहीं चल सकता। इस कानून के चलते पुलिस के स्वीकार करने से पहले ही अपराध स्वीकार हो जाता है।

अल्पसंख्यकों पर व्यवस्थित हमले हो रहे हैं। हिंदुत्ववादी ताकतों ने माहौल खराब करके दलितों और महिलाओं पर हमलों को प्रोत्साहित किया है। अन्यकरण’, इस्लाम का दानवीकरण और मुसलमानों का चुन-चुन कर शिकार करना इनके कुछ प्रभावी हथियार हैं। संघर्षशील जनता की एका को तोड़ने के लिए भी इस उन्मादी सांप्रदायिकता का इस्तेमाल किया जा रहा है। कार्पोरेट-सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों के इस रथ को रास्ते में ही ध्वस्त कर देने की जरूरत है।

संघर्षशील ताकतों के लिए उभरती स्थितियां संभावना से भरी हुई हैं। आम अवाम ने इस सरकार की तुक बरतानवी कंपनी राज से मिलानी शुरू कर दी है, लोग इसे अदानी-अंबानी और अमरीका की सरकार कह रहे हैं। अच्छे दिनऔर काला धन वापस लानेके इस सरकार के वायदे जनता के साथ क्रूर मजाक साबित हुए हैं। दिल्ली चुनावों में भाजपा को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। कोयला मजदूरों, बैंककर्मियों और बीएसएनएल कर्मचारियों ने सफल हड़तालें कीं। पूरे देश में मानद और ठेका कर्मचारी प्रतिरोध के रास्ते पर हैं। यह सब कामगार जनता के लड़ाकू मन-मिजाज के लक्षण हैं।

पर हम वामपंथी ताकतों के चुनावी प्रदर्शन में गिरावट भी देख रहे हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर उभरते हुए नौजवान भारत और वामपंथ में कोई संबंध नहीं बन पा रहा है। आधुनिक दुनिया ने कल्पनातीत दौलत बनाई है। हर आदमी के लिए तकनीक ने इस दौलत को देख पाना आसान बना दिया है। यह दौलत सामाजिक उत्पादन का फल है। जरूरतें और इच्छाएं अपनी प्रकृति में सामाजिक होती हैं। लोग बेहतर जिंदगी चाहते हैं। यह चाहना बहु-आयामी होता है। ऐसे में ट्रेड यूनियनों को सामाजिक भूमिका निभानी होगी। उनका लोकतांत्रीकरण करना होगा। मजदूरों का राजनीतिकीकरण करना होगा।

पूंजीवादी पुनर्गठन के कारण मजदूर वर्ग की संरचना में बदलाव आया है। इसके कारण नई चुनौतियां खड़ी हुई हैं। इस मौके पर इन चुनौतियों को स्वीकार करते हुए विकसित होने के लिए ट्रेड यूनियन आंदोलन को बहुत कुछ करना होगा। ट्रेड यूनियन आंदोलन की संकीर्णता को तोड़ने के लिए नए विचार और नई पहलकदमियां बेहद जरूरी हैं। नए औद्योगिक क्षेत्रों और इलाकों पर ध्यान केंद्रित करते हुए मजदूरों की नई श्रेणियों को संगठित करना होगा। युवा कैडरों और नेताओं की भारी तादात को आकर्षित और विकसित करने का कार्यभार हमारे कंधों पर है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों तक पहुंचने के लिए सामाजिक आयामों के साथ लगातार और प्रतिबद्धता के साथ इलाकावार काम करना होगा।

2013 की फरवरी में 20 और 21 तारीख को मजदूर वर्ग की हड़ताल संप्रग सरकार को हराने वाले कारणों में से एक थी। एक बार फिर मजदूर वर्ग द्वारा वैसी ही हड़ताल करने का समय आ गया है। एक्टू निश्चित ही इस दिशा में आगे बढ़ेगा। उम्मीद है और भी केंद्रीय ट्रेड यूनियनें इस दिशा में सोच रही होंगी।

मजदूर वर्ग को किसानों और लोकतांत्रिक ताकतों तक पहुंचाना होगा। आल इंडिया पीपुल्स फोरम (एआईपीएफ) में शामिल एक्टू अपने नौवें सम्मेलन से इस नारे को बुलंद करता है- गांव-शहर से उठी आवाज ! नहीं चलेगा कंपनी राज !!

तबाही और बरबादी के धुंधलके में से हम एक जीवंत, गतिशील, जिम्मेदार और सक्रिय मजदूर वर्ग का आंदोलन रचेंगे।

मैं अपनी बात गैलियानों के इन शब्दों के साथ समाप्त करता हूं, ‘‘मनुष्य जाति के इतिहास में तबाही की हर कार्यवाही का देर-सबेर जवाब मिला है, वह जवाब है रचना।

(ऐक्टू के 9वें राष्ट्रीय सम्मेलन में दिया गया अध्यक्षीय वक्तव्य, 4-5 मई 2015)