Tuesday, 31 May 2016

फासीवाद से मुकाबले के लिए समाज और देश को लोकतांत्रिक बनाना होगा


उमा चक्रवर्ती

(7 नवंबर 2015 को गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में उमा चक्रवर्ती ने ‘हिंसा की संस्कृति बनाम असहमति, चुनाव और प्रतिरोध’ विषय पर चौथा कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान दिया था। फासीवाद की सामाजिक जड़ों और कारपोरेट मीडिया के साथ उसके रिश्ते और विश्वविद्यालयों पर हमले की वजह को समझने तथा ज्यादा संगठित प्रतिरोध की जरूरत के मद्देनजर यह एक महत्वपूर्ण व्याख्यान है। पेश है व्याख्यान का संक्षिप्त और संपादित अंश-  समकालीन जनमत, मार्च 2016 में प्रकाशित)

फासीवादी माहौल के पीछे एक लंबी प्रक्रिया है और हमारे समाज में वो इतनी फैली हुई है और इतनी गहरी है कि शायद लोगों को कोई दिक्कत नहीं है कि ये किसी तरह का फासीवाद है। हमें समझने की जरूरत है कि इतनी आसानी से हम वैर भावना और हिंसा को कैसे स्वीकार कर लेते हैं? हम समझने की कोशिश करें कि हमारे समाज में कौन सी चीजें हैं जो हमें एक असल लोकतांत्रिक स्वतंत्र सोच वाले वाले समाज बनाने से रोकती हैं। 

सारे लेखकों और बड़े वैज्ञानिकों ने सम्मान वापस करके थोड़ा सा माहौल बनाया कि रुको, देखो क्या कर रहे हो? लेकिन पिछले हफ्ते ही तमिलनाडु में एक दलित लेखक (गायक) है जिसको देशद्रोह के आरोप में जेल में डाल दिया गया। उसने क्या लिखा था? जो शराब की नीति है तमिलनाडु में उसके विरुद्ध बोला था और अम्मा जी का मजाक उड़ाया था थोड़ा सा, जो वाजिब है। स्टेट की नीति, सरकार की नीति को लेकर अगर हम टिप्पणी और मजाक नहीं करेंगे तो क्या करेंगे! इसके ऊपर ज्यादा चर्चा नहीं हुई। यह क्या माहौल हैं कि आप मुंह खोलेंगे तो आप पर राजद्रोह लगा दिया जाएगा! तो असहमति की सोच कैसे बनेगी? विनायक सेन को देखो आप। क्या कर रहे थे वे? इनकाउंटर किलिंग की जांच कर रहे थे, उनको जेल में किसने डाल दिया? उन पर भी देशद्रोह चार्ज लगा हुआ था। लेकिन देश क्या है? 

उमा चक्रवर्ती 
दाभोलकर और पानसरे तो तर्कवादी थे। कलबुर्गी के बारे में हमें सोचना चाहिए कि क्या उनका इतिहास वही है? कलबुर्गी लेखक थे, प्रोफेसर थे। लिंगायत वचन के ऊपर लिखा। वो उसी समाज के अंदर के थे और उसी समाज के बारे में लिखा। मतलब आज हमारे देश में आप किसी समाज का हिस्सा हो तो उस समाज के लिए टिप्पणी भी नहीं कर सकते। क्यों? कलबुर्गी कन्नड़ साहित्य के माहिर बुद्धिजीवी थे। उन्होंने वचनों को अपनी तरह से देखा और टटोला, दो तरह की धाराएं उनको दिख रही थीं। उन्होंने कहा कि बसवन्ना की जो दूसरी बीवी थीं, उनकी कविता में ऐसा दिखता है कि वे यौन रूप से संतुष्ट नहीं थीं। दूसरा अहम मुद्दा था कि बसवा की बहन की शादी एक दलित के साथ हुई थी। इन दोनों चीजों को लेकर के बवाल मचा था, जबकि वो जो धारा थी- जाति विरोधी और कर्मकांड विरोधी। लेकिन वही वीरशैव समाज, वही लिंगायत जो हैं, अब ठेकेदार बन गए हैं, वो अब कहेंगे- ठीक, तो उसे ठीक माना जाएगा, और वो कहेंगे- गलत, तो उसको नकारा जाएगा। कलबुर्गी के इतिहास की किताब को वापस कर लिया गया था, उसको बैन कर दिया गया था। वह कभी भी लोगों के सामने नहीं आई। तो यह रिश्ता है हमारा परंपरा के साथ कि हम खोलकर के टटोल भी नहीं सकते उसे पूरी तरह से, क्योंकि हमारे ऊपर जो ठेकदार बैठे हैं वे हमारा मुंह दबा देंगें। इन दोनों चीजों में दिख रहा है कि जाति और जेंडर केंद्र में हैं। बसवन्ना की बहन ने अंतर्जातीय शादी की। लेकिन जाति व्यवस्था में वीर शैव खुद एक जाति बन गया। कलबुर्गी को क्यों मारा गया? क्योंकि कलबुर्गी ने सोचने का अधिकार नहीं छोड़ा था- अपने दिमाग से, अपनी समझ से सोचने का अधिकार। 

जबसे अत्याचार है तबसे उसके विरोध का स्वर भी है। बुद्ध के जमाने से अत्याचार के विरुद्ध हमारे पास विरोध का वैकल्पिक आधार है। आप खुद को विवेकवान बनाओ, अपने आप समझो, अपनी समझ और ज्ञान बढ़ाओ- यह जो हमारी परंपरा है, उसके साथ संलग्न रहना आज आसान नहीं है, क्योंकि जितना उसको हम बाहर लाएंगे, हमारे ऊपर उसी तरह के आरोप लगेंगे कि आप हमारी भावना को आहत कर रहे हो। भावना आहत होने को एक तरह से आज संवैधानिक अधिकार बना दिया गया है। आज के जमाने में ज्योतिबा फुले होते तो ये उनको भी मार डालते। उन्होंने कहा था कि मैं तो तीसरी आंख के पीछे जा रहा हूं। मुझे तीसरी आंख चाहिए। तीसरी आंख- जो आंख के पीछे दिमाग है, जो दिमाग के अंदर आंख है, जिससे आप समाज को समझें। 

अब हमारी मीडिया है। अर्णव गोस्वामी जितना चिल्लाता है उसको उतनी ही वाहवाही मिलती है। उसका जो स्टाइल है, बुलाता है दस तरह के लोगों को। फिर बोलने को उसी को कहता है जो शायद उसी के जैसा राय रखता हो। आनंद पटवर्धन ने कहा कि मैंने इमरजेंसी के ऊपर फिल्म बनाई। विरोधी स्वर तो उसका तब से ही था, कांग्रेस का बंदा तो बिल्कुल नही है। फिर पूछा जाता है कि माओइस्ट के विरुद्ध क्यों नहीं बोले! मैनुफैक्चर्ड अटैक, क्योंकि कोई आधार नहीं है जिसे लेकर आप चिल्ला रहे हैं। डिबेट जो हमारे चैनल दिखा रहे हैं, उससे पोलराइज्ड हिस्टिरिया मैनुफैक्चर्ड हो रहा है। ...असलियत में ये जमीन हड़प कर रहे है, खनिज क्षेत्र पर धावा बोल रखा है, वहां छत्तीसगढ़ में पब्लिक सिक्युरिटी एक्ट लगाकर के सिविल सोसाइटी को खत्म कर रखा है। छत्तीसगढ़ में कोई सिविल सोसाइटी बची ही नहीं हैं। कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। ये स्थिति बना रखी है। मिलिट्राइजेशन का तो आज मार्केट है। हमें देखना चाहिए कि आंगनबाड़ी के लिए जो पैसा कम हो गया है, वो पैसा कहां गया है। आपका ध्यान उन्होंने टीवी के महाभारत पर लगा रखा है। ये जो माहौल है उसमें स्टेट की वास्तविक आर्थिक-राजनीतिक मंशाएं छुप जाएंगी। कैसे हम अपनी बात रखेंगे और कैसे लिखेंगे, हम कैसे दूसरों के साथ बातचीत करेंगे, हम कैसे अंततः एक राजनीतिक जनगोलबंदी करेंगे! अब तो मुंह खोलकर किसी फिल्म के बारे में भी बोल नहीं सकते, क्योंकि आपको चुप करा दिया जाएगा। दूसरा यह कि जो लंबे संघर्ष के मुद्दे हैं, जाति के वर्चस्व को लेकर और बीच-बीच में जो आॅपरेशन चल रहे हैं, वो सारी चीजें लुप्त हो जाएंगी, सारी चीजें सामान्यता में चली जाएंगी। 

फासीवाद का हिंसा से क्या रिश्ता है, थोड़ा उसके बारे में बात करेंगे। ईपीडब्ल्यू में तेलतुंबड़े का एक लेख आया है। वे कहते हैं कि हमारे यहां धर्म आधारित फासीवाद है। वे मुसोलनी के कथन से लेख की शुरुआत करते हैं कि जो हमसे सहमत नहीं, उसकी हम चर्चा नहीं करेंगे, उससे तर्क नहीं करेंगे। हमें सिर्फ उसको मारना है। सीधी बात यह है कि जो हमारे साथ नहीं है वह जीने के काबिल नहीं है। उसे मार डालो। फासीवाद की खासियत यह है वह हिंसा का इस्तेमाल करता है, उसे वैधता प्रदान करता है। फासीवाद का एक गहरा रिश्ता उन लंपट-अपराधी तत्वों से है जो किसी प्रदर्शनी या सिनेमा हाॅल में हमला बोल देते हैं। विश्वविद्यालयों पर तो बोलते ही हैं। दस लड़के आते हैं, कहते हैं कि रामानुजम का लेख पढ़ने नहीं देंगे, तोड़-फोड़ करते हैैं और कोर्स बदल दिया जाता है! राज्य की शक्ति इन्हें वैधता देती है कि चाहे तुम जो करो, हम कुछ नहीं बोलेंगे। एम एफ हुसैन की पेंटिंग प्रदर्शनी में तोड़-फोड़ की जाती है, सुधींद्र कुलकर्णी, जो भाजपा का ही आदमी है, उस के मुंह पर कालिख पोत दी जाती है। 

लोग बताते हैं कि सोशल मीडिया पर कैसी गंदगी है और कैसा हमला होता है वहां पर, अगर आप खुला दिमाग रखते।  इस माहौल की जड़ कहां है? रोमिला थापर कहती हैं कि जो गंदगी या वैर की सोच थी, उसे आज एक पब्लिक स्फियर में मान्यता मिल गई है। जिसे हमने दबा के रखा था, समुदाय आपस में जो आक्षेप लगाते थे अपने घरों के अंदर, अब वो खुल्लमखुल्ला पब्लिक स्फियर में आ गया है। आप कुछ भी कह सकते हैं, किसी भी तरह के लांक्षण लगा सकते हैं। 

हमारे देश में एक तरह की मोरल पुलिसिंग हो रही है। यह जो मोरल पुलिसिंग को वैधता मिली है, वह हमने अपने समाज को दे रखी है। अछूतपन को हमने खत्म किया, पर जाति को हमने नष्ट नहीं किया। जाति और जेंडर को लेकर जो परिस्थिति है, उसमें खासकर अंतर्जातीय शादियां जो हैं, उसको लेकर हौवा हमारे देश में है। यह एक समुदाय को पराया बनाने की तरह ही है। मैं मानती हूं कि सांप्रदायिकता आज की चीज नहीं है। इसका बहुत लंबा इतिहास है। जाति सांप्रदायिकता का ही एक रूप है। इसे हमने बिल्कुल स्वाभाविक बना रखा है। जबकि यह कितनी घिनौनी चीज है कि आप एक बंदे को मानव ही नहीं समझते। अगर आप ऐसा कुछ भी समझते हैं तो आप उसके प्रति किसी तरह की हिंसा को सही मानेंगे। इतने कानून थे, क्यों एससी/ एसटी के लिए कानून की जरूरत पड़ी? क्योंकि इतनी संरचनात्मक हिंसा उनके ऊपर है। असल मायने में संविधान लागू हो तो हमें उसकी जरूरत क्यों होगी? जरूरत इसलिए है कि जातिवाद हमारे समाज में गहरा धंसा हुआ है। 

जो अंतर्जातीय शादी करना चाहता है, वह अपने को विद्रोही नहीं समझता, वह औरत अपने को विद्रोहिणी नहीं समझती है। वह अपने चुनाव के आधार पर बस जीना चाहती है, पर समाज को वह मंजूर नहीं है। यह जो खाप पंचायतें हिंसा कर रही हैं, वो भी फासिस्ट हैं। वे यह तय कर रहे हैं कि कौन किससे बात करेगा, कौन किससे रिश्ता रखेगा। विष्णुप्रिया तो दलित अफसर थी। इसी तरह के एक केस को सही मायने में चला न सकने के कारण उसने आत्महत्या कर ली। फासीवाद की जड़ें हमारे समाज में हैं। जब अंतर्जातीय शादियों पर इतनी घिनौनी प्रतिक्रिया होती है, तो बाबू बजरंगी ही पैदा होंगे। और क्या होंगे! बाबू बजरंगी का क्लेम यह था कि हर हिंदू घर में एक एटम बम है। और वो एटम बम क्या है! जो लड़की है उनके घर में, वो एटम बम है। वो कभी भी फूट सकती है। क्योंकि वह कभी भी किसी के साथ जा सकती है। वह चली जाएगी, तो सारा समाज जो है- आपका परिवार, आपका संस्थान, आपका समुदाय, आपका कौम, आपका देश- सब भंग हो जाएगा, क्योंकि वह लड़की अपने पसंद का चुनाव कर लेगी। तो इस संरचनात्मक हिंसा की गहरी वजहें हैं। उसी चीज से फिर आगे चलकर ‘लव जेहाद’... जिस मामले में दंगे हो जाते हैं। 

आपलोगों को हैरानी होगी यह जानकर कि विश्व हिंदू परिषद, खासकर उसका अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप तब आया, जब मीनाक्षीपुरम का धर्म परिवर्तन हुआ था। वहां दलितों ने सोचा कि हमको मुसलमान बन जाना है। असलियत तो यह थी कि एक संपन्न जाति की लड़की और एक दलित लड़के ने भाग के शादी की थी। वे महीनों तक केरल जाके रहे... ये तमिलनाडु की बात है...। लड़के के परिवार वालों पर ऐसा दबाव डाला गया कि अंततः उन्होंने मिलके सोचा कि हम ये रास्ता निकालते हैं कि हम मुसलमान बन जाएंगे। उसके बाद देखते हैं कि क्या कर लेंगे? यही बुनियाद है बीएचपी का। अगर आप राजनीति में अंतर्जातीय शादी को नहीं डालेंगे और कहेंगे कि यह बाहर का मामला है, यह स्टेट का मामला नहीं है, यह राजनीति नहीं है, घर में जो होता है, वह राजनीति नहीं है, तो यह ठीक नहीं है। हर चीज में राजनीति है, हर चीज में एक सबंध है। एक पूरा सेलेक्शन है कि किस तरह का घर होगा, किस तरह की शादी होगी, किस तरह से लोग रहेंगे, किस तरह का कौम बनेगा, किस तरह का हमारा देश बनेगा। फासिज्म मुझे लगता है लोगों के प्रतिदिन के जीवन में है। आप सोच नहीं सकते, आप बोल नहीं सकते, आप अपने मन से बैठ नहीं सकते। आंगनबाड़ी में कोई दलित है, तो बच्चा उसके साथ पानी नहीं पी सकता है। आपने बच्चे में घृणा की मान्यता दी है। मतलब हमने बच्चों को भी स्वाभावित तौर पर दलित और ऊंची जाति में बांट दिया है। 

तो यह जो जो संरचना बनी हुई है उसमें राइट टू एक्ट तो है ही नहीं, राइट टू थिंक भी नहीं है, बहिष्कृत कर दिया गया है। पहले हमारे समाज में कोई अपनी जिंदगी का स्टाइल थोड़ा सा चेंज कर देता था, तो हम उसे बहिष्कृत कर देते थे, अठारहवीं-उन्नीसवीं षताब्दी, बल्कि बीसवीं शताब्दी के अंत तक। आप देखेंगे गिरीश कासरवल्ली की फिल्म है- घटश्राद्ध। एक ब्राह्मण विधवा का रिष्ता हो गया किसी के साथ तो उसको बहिष्कृत कर दिया। हमारे समाज में कोई सहिष्णुतता बरतने को तैयार नहीं है। उस जमाने में बहिष्कृत करते थे, आज मार ही देते हैं। वो जो लड़की थी, जो मीडिया स्टुडेंट थी निरूपमा, ब्राह्मण थी, जिस लड़के से वो शादी करना चाहती थी वह सिर्फ कायस्थ था। यह भी नहीं था कि वह दलित था। उस पर भी बावेला मचा। वह मर तो गई। उसके पहले उसके पिता जी ने उसको एक चिट्ठी लिखी थी, कि तुम जिस संविधान की बात कर रहे हो, उसको सिर्फ 60 साल हुए हैं। हमारा संविधान जो है वह 2000 साल का है। यानी उनका संविधान जो है वह ब्राह्मणवादी टेक्स्ट पर आधारित है। तो यह माहौल जो बना हुआ है, उसमें जिस तरह की पुलिसिंग होती है, वह मोरल पुलिसिंग होती है, आपके ऊपर निगरानी रखी जाती है। 

हम उसको इतना रोजमर्रे की तरह लेते हैं कि हम सोचते भी नहीं हैं कि असहमति का अधिकार, अलग तरह से जीने का अधिकार, भिन्न तरीके से सोचने और उस पर अमल करने का अधिकार भी होना चाहिए। सोचने का अधिकार तभी होगा, जब उसके अनुसार कर्म का अधिकार होगा। सोच-विचार का अधिकार अपने आप में एक मानवीय अधिकार है, उसकी अभिव्यक्ति होनी चाहिए। मेरे दिमाग में कोई बात है। मैं उसके बारे में लिखूंगी, लिखूंगी तो आप पढ़ेगे। हमारा संप्रेषण होगा, हम समाज के साथ संवाद बनाएंगे। अगर आप लिख नहीं सकते हो, अगर आप कर्म नहीं कर सकते हो, आप सोच भी नहीं सकते हो, तो जाहिर है आप आगे जाकर एक रबर स्टाम्प वाला समाज ही बनाना चाहते हो। 

आज हाशिये से तो चुनौती आएगी ही आएगी, क्योंकि वो तो अपना हक मांगेंगे, चुप कोई नहीं बैठने वाला।...युवा जो हैं, चुनौती उनकी ओर से भी आने लगी है, वो चुप नहीं रहना चाहते हैं। विश्वविद्यालयों वगैरह में कुछ गुंडे लड़के तो होते ही हैं, पर बड़े दायरे में थोड़ा फैलाकर देखें तो युवा लोगों में थोड़ी-सी प्रश्नात्मकता आ गई है। जो आसानी से सहमत नहीं हैं अपने समाज से, घटनाओं को लेकर वे सोचते हैं, उनमें बहुत-से लोग नए तरीके से सोच रहे हैं। तो इसीलिए विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण करना बहुत ही जरूरी समझा जा रहा है। यूजीसी के सामने जो आंदोलन हो रहा है, उसमें एक निरंतरता है। 1975 में इमरजेंसी जब लागू हुई थी, तो वो ‘प्रिजनर्स आॅफ कान्सिएन्स’ का ओपनिंग फ्रेम है न, इंदिरा गांधी का जो पोस्टर है, वो ‘तानाशाहों की आखिरी जगह’ वाला पोस्टर। उस तस्वीर को पोस्टर बनाकर छात्रों ने विश्वविद्यालय में चिपका दिया। विजय प्रताप और जसबीर को पकड़ के ले गए थे, पंखे से टांगकर उनका टाॅर्चर किया गया था। यह विश्वविद्यालय का इतिहास है। हमारे छह क्षिक्षक, जिनमें पांच एमएल (मार्क्सवादी लेनिनवादी) के थे, एक बीजेपी का था, एक अध्यक्ष था डूटा का, वे सब महीनों जेल में रहे थे। विश्वविद्यालय एक जगह थी जहां से राज्य को ललकारा जा रहा था, उससे प्रश्न पूछे जा रहे थे। तो यह भूमिका है बुद्धिजीवियों की। अगर हम सोच नहीं सकते, बोल नहीं सकते, तो विश्वविद्यालय को रहना ही नहीं चाहिए, उसको बंद कर देना चाहिए। लेकिन उसे पूरी तरह बंद नहीं कर सकते, तो वे उल्टे फैसले ले रहे हैं। निजीकरण कर रहे हैं, फी-स्ट्रक्चर के ढांचे में इस तरह बांध रहे हैं कि छात्रों के पास अपने समाज के बारे में सोचने का समय ही न रहे। इसके बावजूद कक्षाओं में जाइए तो छात्रों की आंखों में खुलापन है, उनकी आंखों में प्रश्न हैं, वे वास्तव में आपकी बातों को काफी गहराई से सुनते हैं। और वहीं से आवाजें आ रही हैं। यूजीसी में जो लोग लोग बैठे, उन पर पुलिस के डंडे चले। वह इसलिए न कि किसी तरह से उनका मुंह बंद कर देना है। फिर वे इतिहास को बदलेंगे, अपनी तरह का नेशनलिज्म उसमें डालेंगे, सारी संस्थाओं में अपने लोगों को बिठाएंगे। पहले हम समझते थे कि स्कूल की शिक्षा उनके लिए बहुत मायने रखती है। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि विश्वविद्यालय आलोचनात्मक पूछताछ और सवालों के केंद्र हैं, इसलिए वे उसे दबाना चाहते हैं। इसलिए एक हाथ से वे निजीकरण कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ जो शोध छात्र हैं, उनको जो फेलोशिप मिलती है, ताकि वे अपने परिवारों पर बोझ न बनें, उसको खत्म कर रहे है। यूजीसी की ओर से मिसाइल आ रही है विश्वविद्यालयों के ऊपर, पर मीडिया कहेगी कि हमारी शिक्षा बहुत अच्छी जा रही है, क्योंकि उनके राजनीतिक आका जो बोलेंगे, वे उसी को कहेंगे। 

दरअसल ये हत्यारे हैं। ये आखिर क्यों बच जा रहे हैं? क्योंकि काॅरपोरेट मीडिया ने जो डिबेट चला रखा है, हम फंस गए हैं इस तरह के मामले में कि किसने ज्यादा किया है, 84 में ज्यादा हुआ कि 2002 में। हम तो 84 के खिलाफ भी थे, अन्य बहुत सारे मामलों के खिलाफ थे। इसलिए बकवास मत करो, हम इस समाज का बड़ा हिस्सा हैं। दरअसल उनको विश्वविद्यालयों से चुनौती आ रही है। बुद्धिजीवी कहां बन रहे हैं, कहां अभी उनका मुंह खुला है, कहां वो लिख रहे हैं, किस तरह के लेख लिख रहे हैं, ये चीज जो है, उस पर उनकी निगाह है। जो संरचनात्मक हिंसा है वह यहां जरूर आएगी, बढ़ी हुई सघनता के साथ आएगी। उसका प्र्रतिरोध करना है, यह मानकर लेखकों ने प्रतिरोध किया। आगे देखना होगा कि हम किस तरह का आंदोलन खड़ा करते हैं, किस तरह से अपनी बात फैलाने के लिए अलग-अलग आधार निकालते हैं। प्रतिरोध की संस्कृति हमको बनाना है, उसे पुनर्सृजित करना है। अगर मैं जिंदा हूं तो मैं बोलूंगी। बकौल फैज- बोल की सच जिंदा है अब तक। 

मैं कह रही हूं कि हमें देश के पूरे संरचनात्मक ढांचे और घिनौनी संस्थाओं को बदलकर हर चीज में बेहतरी लानी होगी। हमें अफ्सपा पर बोलना पड़ेगा, हमें जाति पर बोलना पड़ेगा, हमें हर चीज पर बोलना पड़ेगा। सबको आपस में जोड़ना होगा, तभी हम सोचने का एक वैकल्पिक अंदाज बना पाएंगे। मैं साउथ एशियन हूं। साउथ एशिया की जितनी अच्छी चीजें हैं उन्हें ले लूंगी, जो गंदी चीजें हैं उन्हें छोड़ दूंगी। अभी तो मेरा भारत देश मुझसे प्रत्याक्रमण की मांग कर रहा है। एक सचमुच का लोकतांत्रिक समाज जो सचमुच ही सबको हक दे, उस समाज के लिए हमें लड़ना पड़ेगा। अभी हममें जान है, हमें प्रतिरोध की जमीन को बिल्कुल नहीं छोड़ना चाहिए।

No comments:

Post a Comment