Monday, 30 May 2016

मीडिया के जनतांत्रीकरण की लड़ाई बेहद जरूरी है

अगले पांच सालों में अंबानी की जेब में होंगे सारे पत्रकार :  पी. साईनाथ
(वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ द्वारा 5 मार्च को मुंबई कलेक्टिव के तत्वाधान में दिये गये भाषण का सत्येन के. बोर्दोलोई द्वारा संपादित अंश हमने समकालीन जनमत के मई अंक में प्रकाशित किया था। यह पूरा व्याख्यान यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। आज पत्रकारिता दिवस पर पेश है यह भाषण। अनुवाद दिनेश अस्थाना जी ने किया है।)

प्रजातंत्र के चौथे पाये, मीडिया के साथ एक समस्या यह है कि चारों में से अकेला यही पाया ऐसा है जिसमें मुनाफे की गुजाइश है। और इस मुंबई शहर में ‘फोर्थ इस्टेट’ और ‘रियल इस्टेट’ में फर्क करना बहुत मुश्किल है। मीडिया पर नियंत्रण लगातार संकुचित होता जा रहा है और उसी मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार भारतीय समाज आश्चर्यजनक रूप से विविधता से परिपूर्ण, विषमांगी और जटिल है। ज्यों-ज्यों सामाजिक विषमता बढ़ रही है त्यों-त्यों मीडिया समांगी होता जा रहा है। यह एक आश्चर्यजनक और बेमेल विरोधाभास है।

जरा टेलीविजन पर चलने वाली बहसों और बहस करने वाले लोगों की प्रकृति पर एक नजर डालिए। उनकी सामाजिक संरचना क्या है? अखबारों के स्तंभकार कौन लोेग हैं? यह बहुत ही संकुचित और दिशाहीन लोगों का समूह है। मैं देख रहा हूं कि किसानों की आत्महत्या पर सर्वाधिक संवेदना व्यक्त करने वाले लोगों का संबंध सेना से है। क्यों? क्योंकि हमारे जवानों में से अधिकांश वर्दीधारी किसान हैं। सेना के प्रशिक्षण संस्थान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने एक बार मुझसे कहा था कि उन्हें महाराष्ट्र से आए जवानों की ज्यादा चिंता होती है। उन्हें अपने गांव से आने वाले फोन से डर लगता है। जब वे अपने परिवार वालों से बात करते हैं तो खुश होेते हैं लेकिन जब उन्हें अपने घर से फोन मिलता है तो वे घबरा जाते हैं। वे यह नहीं जानना चाहते कि किसी के साथ क्या घट गया है। जवान और किसान में बड़ा ही नजदीकी रिश्ता होता है, असल में उनका वर्ग एक ही है।

राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रद्रोह की बहस कहां से शुरू होती है? यह बहस उन्हीं लोगों द्वारा चलायी जा रही है जिनके आदर्श पुरुषों ने कभी भी राष्ट्रीय संघर्ष में भाग नहीं लिया, जिन्होंने जेल से बाहर आने के लिए उस समय ब्रिटिश सरकार के सामने माफीनामे लिखे, जबकि दूसरे लोग अपनी जान न्यौछावर कर रहे थे। जिन लोगों ने राष्ट्रपिता की हत्या की वे ही राष्ट्रवाद सिखा रहे हैं। हमारी पूरी पीढ़ी इतिहास-विहीन हो चुकी है। उन्हें पता ही नहीं है कि राष्ट्रीय संघर्षों का क्या हुआ, किसने क्या किया था, राष्ट्रभक्त कौन लोग थे और कौन लोग ब्रिटिश साम्राज्य के सहभागी थे। बड़े-बड़े परिवर्तन हो चुके हैं। हालांकि मैं कुछ संपादकों और उद्घोषकों से नाराज हूं, लेकिन मेरा ख्याल है कि पत्रकारिता का सर्वनाश करने की गहरी प्रक्रिया लगातार चल रही है। इस पर ध्यान देने की जगह केवल उद्घोषकों को बदल देने से कुछ नहीं होने वाला है। ऐसे उद्घोषक वहां हैं तो सिर्फ इसलिए कि उन्हें वहां रहने दिया जा रहा है।

पिछले 20 सालों में हमने पत्रकारिता को केवल धन कमाने का जरिया बना कर रख दिया है। इसका कारण है मीडिया का काॅरपोरेटीकरण। मीडिया को नियंत्रित करने वाली शक्तियां इस समय पहले किसी भी समय के मुकाबले बड़ी हैं और अधिक ताकतवर भी हैं। पिछले 25-30 सालों में मीडिया का मालिकाना बड़ी संख्या में और अधिक तेजी से कुछ चुनिन्दा हाथों में सिमटता जा रहा है। सबसे बड़े नेटवर्क समूहः नेटवर्क-18 को ही ले लें। इसका मालिकाना इस समय मुकेश अंबानी के पास है। ईटीवी नेटवर्क के कई चैनलों को आप लोग जानते ही हैं। आप में से कितने लोग जानते हैं कि तेलुगू चैनल को छोड़कर बाकी सभी के मालिक मुकेश अंबानी ही हैं। इसी प्रकार पूरे देश के कई सारे चैनलों के मालिक मुकेश अंबानी ही हैं। अगर हमलोग अगले पांच साल पत्रकारिता में टिके रहें तो हम सभी उनकी जेब में ही पहुंच जाएंगे। जितने चैनलों के मालिक वे हैं उन सभी का तो उन्हें नाम भी नहीं मालूम होगा। फिर भी वह ये फतवा देने में कामयाब रहे कि चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी पर किसी चैनल पर कोई रिपोर्ट नहीं आएगी और ऐसा हुआ भी। इन चैनलों की व्यवसायगत रुचि देश के बड़े काॅरपोरेट घराने की व्यवसायगत रुचि का ही प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए इतना तो तय है कि आने वाले दिनों में कार्यक्रमों की विषयवस्तु पर नियंत्रण और भी कठिन हो जाएगा।
सेल्वाडोर डाली की एक पेंटिंग 

पिछले 20 सालों में उदारीकरण और जनसंसाधनों के निजीकरण से सबसे अधिक लाभ मीडिया को नियंत्रित करनेवाले काॅरपोरेट घरानों ने ही कमाया है। अब तो हर कोई यह भूलने की कोशिश में लगा है कि अपने कार्यकाल के पहले पांच वर्षों में मनमोहन सिंह को तो भगवान ही मान लिया गया था। 2009 में सारे महान उद्घोषकों का मानना था कि उस समय की जीत कांग्रेस पार्टी की नहीं बल्कि मनमोहन सिंह और उनके आर्थिक सुधारों की थी। अब देखते रहिये, निजीकरण का अगला दौर आने ही वाला है। और इसका फायदा किसको मिलेगा? अगर खनन क्षेत्र का निजीकरण किया जाता है तो टाटा, बिड़ला, अंबानी और अडानियों को बड़ा फायदा मिलेगा। अगर प्राकृतिक गैस का निजीकरण होेता है तो एस्सार और अंबानियों को फायदा मिलेगा। और स्पेक्ट्रम का लाभ टाटा, अंबानी और बिड़लाओं को मिलेगा। यानी जनसंसाधनों के निजीकरण का लाभ उन्हीं घरानों को मिलना है जिनके कब्जे में मीडिया भी है। जब बैंकों का निजीकरण होगा तो भी लाभ उन्हें ही मिलेगा। यहीं एक बात ध्यान देने की है। पहले तो उन्होंने हिटलर की तर्ज पर एक हस्ती- नरेंद्र मोदी, बनाने में कुछ साल खर्च किए और उनके प्रतिद्वंद्वियों को धूल चटाकर गुजरात और दिल्ली के कूड़ेदान में डाल दिया। लेकिन उनसे कुछ बन नहीं सका। और उन्हें यह भी नहीं पता है कि अब क्या किया जाए। वह अपना भूमि अधिग्रहण विधेयक भी नहीं पास करा पाए। वह बहुत सारे वे काम भी नहीं कर पाए जिनके लिए लोग लार टपका रहे थे। वे अब मोदी से नाराज तो हैं लेकिन कोई विकल्प है ही नहीं। तो वे अब क्या करें? तो आखिरकार हमें मीडिया में ही कुछ गुंजाइश दिखाई दे रही है जहां कभी-कभार कुछ कहा जा सकता है। 

मैं फिर कह रहा हूं कि भारतीय मीडिया राजनीतिक रूप से तो आजाद है, लेकिन वह मुनाफे में कैद है। भारतीय मीडिया का यही चरित्र है। कन्हैया के मामले में मीडिया की करवट से मैं जरा भी प्रभावित नहीं हूं। याद करिए कि उसके भाषण चला के उन्होंने लाखों लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था। उनके दर्शकों की संख्या एकाएक बहुत बढ़ गयी थी। मीडिया की इस पल्टी के बावजूद उनमें से बहुतों ने बहस के इस पहलू को स्वीकार किया कि कन्हैया के साथ जो भी हुआ, गलत हुआ, लेकिन इसके पहले आप यह कहने के लिए मजबूर थे कि आप राष्ट्रविरोधी नारों के खिलाफ हैं। आपने पेशगी माफीनामा दे दिया, बहस की रूपरेखा को स्वीकार कर लिया और खुद को उसी खांचे में फिट कर लिया। मीडिया का काॅरपोरेटीकरण कोई नई बात नहीं है, लेकिन भारत में उसकी रफ्तार अन्य देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है। अमरीका और आस्ट्रेलिया में यह चरम विंदु तक पहुंच चुका है। जरा पिछले दस साल की पत्रकारिता पर नजर डालिए। पत्रकारिता को झकझोर देने वाले तीन बड़े खुलासों ने इसे जड़ से हिला तो दिया लेकिन मजे की बात यह रही कि इनमें से कोई खुलासा मुख्यधारा की पेशेवर पत्रकारिता के रास्ते नहीं आया। ये तीनों हैं -असांजे और विकीलीक्स, एडवर्ड स्नोडेन और र्चेिल्सया मैनिंग। इनमें से कोई भी तथाकथित समाचार संगठन से क्यों नहीं आया? क्योंकि वे व्यवस्थापना और बड़े व्यापारिक घरानों का मुंह नहीं अगोरते, वे खुद ही बड़े व्यापारिक घराने और बड़ी व्यवस्थापना हैं। बाजार का उनपर इतना बड़ा निवेश है कि वे सच बोल ही नहीं सकते। अगर वे शेयर बाजार की व्याख्या आलोचनात्मक ढंग से करना शुरू कर दें तो उनके अपने शेयरों की कीमत पर असर पड़ने लगेगा। इसलिये कभी भी अखबारों की सलाह पर निवेश न करें। खुद उनके पास लाखों शेयर हैं इसलिये वे आपसे कभी सच नहीं बतायेंगे। चूंकि मुनाफा पत्रकारिता का मुख्य मानदंड बन चुका है इसलिये अगर आप मझोले आकार के उद्यमी हैं और एक बड़ी छलांग लगाने की चाहत में मेरे (दुनिया के सबसे बड़े अंग्रेजी के अखबार) के पास आते हैं तो मैं आपसे कहूंगा कि आप एक निजी समझौते पर दस्तखत कर दें। इस समझौते से आप अपनी कंपनी के 10 प्रतिशत शेयर मुझे दे देंगे। और अगर ऐसा ही होता है तो मेरे अखबार में कभी भी आपकी कंपनी के खिलाफ रिपोर्ट छप ही नहीं सकती। अब अगर किसी अखबार के पास दो सौ कंपनियों के शेयर आ जाएं तो वह अखबार रह भी गया या सिर्फ इक्विटी फर्म बन गया? 

स्वस्थ पत्रकारिता स्वयं से संवाद करने वाला समाज, खुद से संवाद और बहस करने वाला राष्ट्र है। यह एक जनसेवा है और जब हम एक ऐसी सेवा से पैसे बनाने की सोचते हैं, तो फिर इसकी भयंकर कीमत चुकानी होगी। आइए ग्रामीण भारत की एक झलक देखते हैं- 83.3 करोड़ आबादी, 784 भाषाएं जिनमें से 6 ऐसी जिसका प्रयोग 5 करोड़ से अधिक लोेग करते हैं, 3 ऐसी जिसका प्रयोग 8 करोड़ से अधिक लोग करते हैं। अब दिल्ली के सेन्टर फाॅर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत को देश के 6 बडे़ अखबारों के पहले पन्ने पर सिर्फ 0.18 प्रतिशत और देश के 6 बड़े समाचार चैनलों के प्राइम टाइम में सिर्फ 0.16 प्रतिशत जगह मिल पाती है। हमारी जैसी शहरी आबादी की एक तिहाई का मूल ग्रामीण भारत में है। इसलिए मैने इस ग्रामीण भारत में हुए कुछ बड़े संक्रमण की तलाश में पीपुल्स आर्काइव आॅफ रूरल इण्डिया (पारी) की तर्ज पर काम करने की कोशिश की। लेकिन जहां कहीं भी मैं जाता हूं, वहां लोग यह सवाल जरूर करते हैं: आप के धन की योजना क्या है और इस काम से क्या लाभ होगा? मैं बताता हूं कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, लेकिन यदि कला और साहित्य के रचनाकारों से यही सवाल पहले कभी पूछा गया होता तो क्या आज जो कुछ भी काम हुआ दिखाई पड़ रहा है, वह संभव हो पाता। अगर रामायण की रचना करने से पहले वाल्मीकि को या अपने नाटकों की रचना करने से पहले शेक्यपियर को अपने काम के लिए जरूरी धन पाने के लिए कहीं से अपनी योजना बताकर अनुमोदन लेना पड़ता तो क्या होता? मैं कहता हूं कि मैं एक आदमी को जानता हूं जिसके पास आय के स्रोत और काम से लाभ की सुविचारित योजना थी। उसका काम चालीस साल चला। उसका नाम था वीरप्पन। उसके काम में कदम-कदम पर खतरे थे, लेकिन बिना खतरे के कोई उद्यम तो होता नहीं। जितना बड़ा खतरा होगा, उपलब्धि भी उसी अनुपात में होगी।

एक दो अपवादों को छोड़ दिया जाए तो गोमांस प्रतिबंध के परिणामों को लेकर मीडिया ने आजतक कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया है और मैं दावे से कह सकता हूं कि टाइम्स आॅफ इंडिया इसका शानदार अपवाद है। गोमांस प्रतिबंध से आमतौर पर माना जाता है कि मुसलमानों को बहुत नुकसान हुआ होगा, लेकिन इससे सिर्फ मुसलमान ही बरबाद नहीं हुए, दलित और कोल्हापुरी चप्पल उद्योग भी चैपट हो गए, अन्य पिछडी जातियां जिनका पशुओं के बाजार पर प्रभावी नियंत्रण था उन पर कुठाराघात हुआ, लब्बोलुबाब यह कि इससे देहात का सब कुछ चैपट हो गया। आप जानते हैं कि ऐसे बहुत से निम्न या उच्च मध्यमवर्गीय शहरी हैं जिन्हें न तो खेती के बारे में और न ही ग्रामीण अर्थशास्त्र में गाय की केंद्रीय भूमिका के बारे में कोई जानकारी है, लेकिन वे इस बारे में निर्णय लेते हैं। क्या मीडिया ने तीन स्वतंत्र विचारकों- साथी गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर या कलबुर्गी की हत्याओं पर कोई गंभीर और कठोर निर्णय लेने लायक जांच करने की जहमत उठाई है। पुलिस और सरकार की हीलाहवाली के लिए अदालतें लगातार उनकी लानत-मलामत कर रही हैं परन्तु फिर भी कोई गंभीर जांच नहीं की जा रही है। तीनों की हत्या का तरीका एक ही रहा है- एक ही तरह के, मोटरसाइकिल-सवार हत्यारों द्वारा। कहने की बात है कि गुजरात में हरेन पाण्ड्या की भी हत्या इसी तरह हुई थी। 

भाजपा की इस सरकार और पहले की सरकार में फर्क क्या है? मेरा ख्याल है कि वर्तमान समय की राजनैतिक स्थिति एकदम अलग है। इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि आर.एस.एस. का प्रचारक इस बहुमत की सरकार में प्रधानमंत्री है। इसके पहले जो प्रचारक थे वह काफी ढीले-ढाले थे, उनके सक्रिय प्रचारक होने से लेकर प्रधानमंत्री बनने के बीच 40 साल लगे थे, इस बीच वह सौम्य भी हो चुके थे और उनके पास बहुमत भी नहीं था। लेकिन जब प्रचारक को बहुमत मिल गया तो काफी कुछ बदल गया। और मीडिया इसी का फायदा उठा रहा है। 

मुझे विश्वास है कि इस देश में सामाजिक- राजनीतिक रूढ़िवादियों और बाजारू-आर्थिक रूढ़िवादियों का मिला-जुला शासन है और दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। तो ऐसी स्थिति में आप क्या कर सकते हैं? इसलिए इस समय कानून द्वारा, विधायिका द्वारा और जनांदोलनों के द्वारा मीडिया के जनतांत्रीकरण के लिए एक सशक्त आन्दोलन की सख्त जरूरत है। साहित्य, पत्रकारिता, किस्सागोई ये सभी किसी काॅरपोरेशन मे निवेश के चलते नहीं आए हैं। ये आए हैं लोगों के और विभिन्न समाजों के समुदायों से। हमें इसे उन्हीं तक पहुंचाने का इंतजाम करना होगा। जब बाल गंगाधर तिलक को देशद्रोह के आरोप में जेल भेजा गया तो लोग उनकी पत्रकारिता की आजादी के लिए सड़कों पर उतर आए थे और मरने तक के लिये तैयार हो गये थे। यह था मुंबई का मजदूर तबका। उनमें से कुछ लोग ऐसे भी थे जो पढ़ना-लिखना जानते भी नहीं थे। लेकिन वे एक भारतीय की अभिव्यक्ति की आजादी के बचाव में सड़कों पर उतर आए थे।

किसी समय भारतीय मीडिया और आम लोगों के बीच के संबंध बहुत प्रगाढ़ थे। इस जन-उद्घोषक को प्रभावी बनाने के लिए मीडिया के जनतांत्रीकरण की लड़ाई बेहद जरूरी है। एकाधिकार तोड़ना बहुत जरूरी है- मीडिया के मालिकाना के एकाधिकार से आजादी। मीडिया के मालिकाना में विविधता के विस्तार की जरूरत है, मीडिया आज गिने-चुने हाथों में सिमट कर रह गया है, इस निजी तंत्र में जनसामान्य की भागीदारी बहुत जरूरी है और विश्वास कीजिए, इसके लिए लड़ना ही होगा। यह आसान तो नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है।

1 comment:

  1. बहुत ही अच्छा लेख। शुक्रिया

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