Wednesday, 14 October 2015

सत्य से सत्ता के युद्ध का रंग है ...


लेखकों, कलाकारों द्वारा पुरस्कार वापसी पर जन संस्कृति मंच का बयान

जन संस्कृति मंच उन तमाम साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का स्वागत करता है जिन्होंने देश में चल रहे साम्प्रदायिकता के नंगे नाच और उस पर सत्ता-प्रतिष्ठान की आपराधिक चुप्पी के खिलाफ साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी के पुरस्कारों तथा पद्मश्री आदि अलंकरण लौटा दिए हैं. जन संस्कृति मंच साहित्य अकादमी की राष्ट्रीय परिषद् तथा अन्य पदों से इस्तीफा देनेवाले साहित्यकारों को भी बधाई देता है जिन्होंने वर्तमान मोदी सरकार के अधीन इस संस्था की कथित 'स्वायत्तता' की हकीकत का पर्दाफ़ाश कर दिया है. जिस संस्था के अध्यक्ष इस कदर लाचार हैं कि प्रो. कलबुर्गी जैसे महान 'साहित्य अकादमी विजेता' लेखक की बर्बर हत्या के खिलाफ अगस्त माह से लेकर अबतक न बयान जारी कर पाए हैं और न ही दिल्ली में एक अदद शोक-सभा तक का आयोजन, उस संस्था की 'स्वायत्तता' कितनी रह गयी है? आखिर किस का खौफ उन्हें यह करने से रोक रहा है? के. सच्चिदानंदन द्वारा उनको लिखा पत्र सब कुछ बयान कर देता है, जिसका उत्तर तक देना उन्हें गवारा न हुआ. सितम्बर के पहले हफ्ते में भी विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधि अकादमी के अध्यक्ष से दिल्ली में मिले थे और उनसे आग्रह किया था कि प्रो.कलबुर्गी की शोक-सभा बुलाएं. आज तक उन्होंने कुछ नहीं किया.

भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् हो या पुणे का फिल्म इंस्टिट्यूट, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी हो या भारतीय विज्ञान परिषद्, आई.आई.एम और आई.आई.टी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान हों अथवा तमाम केन्द्रीय विश्विद्यालय तथा राष्ट्रीय महत्त्व के ढेरों संस्थान- शायद ही किसी की भी स्वायत्तता नाममात्र को भी साम्प्रदायिक विचारधारा और अधिनायकवाद के आखेट से बच सके. ऐसे में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता की दुहाई देकर अकादमी पुरस्कार लौटानेवालों को नसीहत देना सच को पीठ दे देना ही है.

2014 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मुज़फ्फरनगर में अल्पसंख्यकों के जनसंहार के बाद से लेकर अब तक हत्याओं का निर्बाध सिलसिला जारी है. पैशाचिक उल्लास के साथ हत्यारी टोलियाँ दादरी जिले के एक छोटे से गाँव में गोमांस खाने की अफवाह के बल पर एक निरपराध अधेड़ मुसलमान का क़त्ल करने से लेकर पुणे-धारवाड़-मुंबई-बंगलुरु जैसे महानगरों तक अल्पसंख्यकों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आखेट करती घूम रही हैं. बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों के नाम पर 'डेथ वारंट' जारी कर रही हैं. घटनाए इतनी हैं कि गिनाना भी मुश्किल है. इनके नुमाइंदे टी.वी. कार्यक्रमों में प्रतिपक्षी विचार रखनेवालों को बोलने नहीं दे रहे, खुलेआम धमकियां और गालियाँ दे रहे हैं. सोशल मीडिया पर इनके समर्थक किसी भी लोकतांत्रिक आवाज़ का गला घोंटने और साम्प्रदायिक घृणा का प्रचार करने में सारी सीमाएं लांघ गए हैं. कारपोरेट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन कृत्यों को चंद हाशिए के सिरफिरे तत्वों का कारनामा बताकर सरकार की सहापराधिता पर पर्दा डालना चाहता है. क्या इन कृत्यों का औचित्य स्थापन करनेवाले सांसद और मंत्री हाशिए के तत्व हैं? लेकिन छिपाने की सारी कोशिशों के बाद भी बहुत साफ़ है कि इतनी वृहद योजना के साथ पूरे देश में, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, असम से गुजरात तक निरंतर चल रहे इस भयावह घटनाचक्र के पीछे सिर्फ चन्द सिरफिरे हाशिए के तत्वों का हाथ नहीं, बल्कि एक दक्ष सांगठनिक मशीनरी और दीर्घकालीन योजना है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में 16 मई, 2014 के बाद से सैकड़ों छोटे बड़े दंगे प्रायोजित किए जा चुके हैं. खान-पान, रहन-सहन, प्रेम और मैत्री की आज़ादी पर प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं. गुलाम अली के संगीत का कार्यक्रम आयोजित करना या पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री की पुस्तक का लोकार्पण आयोजित कराना भी अब खतरों से खेलना जैसा हो गया है. त्योहारों पर खुशी की जगह अब खौफ होता है कि न जाने कब, कहाँ क्या हो जाए. भारत एक भयानक अंधे दौर से गुज़र रहा है. अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि जीने का अधिकार भी अब सुरक्षित नहीं.

आज़ाद भारत में पहली बार एक साथ इतनी तादाद में लेखकों-लेखिकाओं और कलाकारों ने सम्मान, पुरस्कार लौटा कर और पदों से इस्तीफा देकर 'सत्य से सत्ता के युद्ध' में अपना पक्ष घोषित किया है. यह परिघटना ऐतिहासिक महत्त्व की है क्योंकि सम्मान वापस करनेवाले लेखक और कलाकार दिल्ली, केरल, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड, बंगाल, कश्मीर आदि तमाम प्रान्तों के हैं. वे कश्मीरी, हिन्दी, उर्दू, मलयालम, मराठी, कन्नड़, अंग्रेज़ी, बांगला आदि तमाम भारतीय भाषाओं के लेखक-लेखिकाएं हैं. उनका प्रतिवाद अखिल भारतीय है. उन्होंने अपने प्रतिवाद से एक बार फिर साबित किया है कि सांस्कृतिक बहुलता और सामाजिक समता और सदभाव, तर्कशीलता और विवेकवाद भारतीय साहित्य का प्राणतत्व है. रूढ़िवाद और यथास्थितिवाद का विरोध इसका अंग है. इन मूल्यों पर हमला भारतीयता की धारणा पर हमला है. हमारी आखों के सामने अगर एक पैशाचिक विनाशलीला चल रही है, तो उसका प्रतिरोध भी आकार ले रहा है. हमारे लेखक और कलाकार जिन्होंने यह कदम उठाया है, सिर्फ इन मूल्यों को बचाने की लड़ाई नहीं, बल्कि भविष्य के भारत और भारत के भविष्य की लड़ाई को छेड़ रहे हैं.

आइये, उनका साथ दें और इस मुहिम को तेज़ करें.

राजेन्द्र कुमार ( अध्यक्ष , जन संस्कृति मंच )
प्रणय कृष्ण (महासचिव,जन संस्कृति मंच)

Friday, 12 June 2015

जसम का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन

जन संस्कृति मंच का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन
31जुलाई- 01अगस्त, 2015

इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि 
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौन्दर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति,
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद-
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ, सुन्दर जाल-
केवल एक जलता सत्य देने टाल

मुक्तिबोध : 
'पूंजीवादी समाज के प्रति' शीर्षक कविता (1940- 42) से 


2015  के भारत के नए 'कंपनी राज' के नेताओं-कारिंदों की मानें तो तमन्नाओं और हसीन सपनों, इसी धरती पर स्वर्ग का आनंद लेने, फैशन, लाइफस्टाइल और अंतहीन उपभोग के विश्व-प्रतिमानों को छू लेने का समय भारतवासियों के लिए आ गया है. बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, आठ लेन की सड़कें, खूबसूरत विश्वस्तरीय कारें, क्लब, पब, होटल और अपार्टमेंट्स, हैरतंगेज़ उपभोक्ता वस्तुएं जिनके लिए 'इंडिया' का दिल धड़कता है, अब हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही हैं. अच्छे दिन आ गए हैं. पूंजीवाले सारी दुनिया से आ रहे हैं 'नया इंडिया' बनाने. हमें बस उन्हें अपनी प्राकृतिक और बौद्धिक संपदा मुक्त हाथों से सौंप देनी है. दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा बेरोजगार और गरीब यहाँ रहते हैं, वे असंभव सी मजदूरी दर पर काम करके 'हमारे' सपनों का भारत बना डालेंगे.

भारत का वर्तमान 'कंपनी राज', अपना अलग 'ज्ञान-काण्ड' रच रहा है, सौन्दर्य के अपने प्रतिमान निर्मित कर रहा है. मुनाफे के लिए अबाध लूट को 'सबका विकास' बता रहा है, जबकि विकास दर की बुलंदियों के वर्षों में भी औसत हिन्दुस्तानी की खाद्य ज़रुरत (कैलोरी इंटेक) में लगातार कमी यानी गरीबों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है. पिछले एक साल में किसान आत्महत्या कुछ प्रदेशों से बाहर निकलकर पूरे भारत की परिघटना बन गयी है. यही वे जलती सच्चाइयां हैं जिन्हें टाल देने को एक अद्भुत सुन्दर जाल बिछाया गया है. लगता ही नहीं कि दुनिया के सबसे ज़्यादा गरीब, सबसे ज़्यादा बेरोजगार, सबसे ज़्यादा निरक्षर इसी देश के रहनेवाले हैं.

यह एक बहुत पुराना देश है हमारा जहां खेत-खलियान, नदियाँ, पहाड़, जंगल और मनुष्य- सब का अब एक ही मूल्य निश्चित किया जा रहा है- वह यह कि वे 'मुनाफे की सभ्यता' के कितने काम के हैं, कितने नहीं. इनके मालिक अब देशवासी नहीं , बल्कि देशी-विदेशी पूंजी के सरदार होंगे. भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) के दौरान अजीमुल्ला खान द्वारा रचित राष्ट्रीय गीत की पहली पंक्ति थी- 'हम हैं मालिक इसके हिन्दोस्तान हमारा'. अब इस देश की मालिक हैं 'कम्पनियां'. इन कंपनियों के मुनाफे की प्यास बुझाने के लिए कितने खेत-खलियान काम आएँगे, कितनी नदियाँ बांधी, उलीची या कचरों से पाटी जाएँगी, कितने पठार-पहाड़ धरती के गर्भ में छिपी निधियों की लूट के लिए तोड़े जाएंगे, कितने जंगल मुनाफे की आग मे जलेंगे और कितने मनुष्य जो इन पर निर्भर हैं अपनी जड़ों और जीविका के साधनों से उखाड़े जाएंगे, इनका आकलन, सर्वेक्षण करके पूंजी के सरदारों को सौंपना आज 'ज्ञान' कहला रहा है. प्रकृति और मनुष्य के श्रम (शारीरिक और बौद्धिक) को पूंजी के मुनाफे में तब्दील करने में बहुत सा प्रबंधन, बहुत सा शोध, बहुत सा कौशल, बहुत सी प्रौद्योगिकी, बहुत सी कला, बहुत सा ज्ञान-विज्ञान लगा है और यही आज की 'नॉलेज सोसायटी' का क्रिया-व्यापार है.

अब अंतिम तौर पर यह बात समझ लेने की है कि शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, हवा. भोजन और मकान जैसी चीज़ें नागरिकों का अधिकार नहीं है, जिन्हें सुनिश्चित करने को सरकारें चुनी जाती हैं. अब ये सब चीज़ें पूंजी के मालिकों से खरीदनी होंगीं और उन्हीं के लिए और उसी अनुपात में उपलब्ध होंगी जिनके पास जितने लायक पैसा है. यही 'गवर्नेंस' है.

पिछले 25 सालों से जारी भारत के भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में पिछला साल एक नया और खतरनाक मोड़ लेकर उपस्थित हुआ. विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (2008, 2011) से पूंजी के मुनाफे की दरों की बढ़त में रुकावट आई. मुनाफे को बढाने का एकमात्र तरीका था प्राकृतिक संसाधनों की लूट और श्रमशक्ति के अबाध शोषण के रास्ते में आनेवाली हर बची खुची बाधा को निर्ममता के साथ ख़त्म करना. श्रम क़ानून और मनरेगा जैसी योजनाएं श्रमशक्ति की लूट में बाधा थीं और भूमि अधिग्रहण क़ानून, वन अधिकार क़ानून, खाद्य सुरक्षा कानून आदि प्राकृतिक संसाधनों की लूट के रास्ते की रुकावटें थीं. इस लूट-पाट पर निगरानी रखने और जनता की नज़र में लानेवाले सूचना के अधिकार जैसे क़ानून और न्यायपालिका, सी.वी.सी., सी.ए.जी. आदि संस्थाओं को निष्प्रभावी बनाना ज़रूरी था, अर्थजगत में अभी भी बहुत कुछ ऐसा बच गया था जिसे निजी पूंजी के हवाले किया जाना था. यह सब जो कारगर ढंग से कर सके और साथ ही साथ जनता को रंगीन सपने बेचते हुए जन-आन्दोलनों का निर्भीक तरीके से दमन कर सके, लोकतांत्रिक आवरण में ऐसे अधिनायकवाद की कारपोरेट मांग 'मोदी परिघटना' के रूप में सफल हुई.

पूंजी की सता आज निरंकुश आत्मविश्वास से भर कर बोल रही है, "सब हमें चुपचाप सौंप दो! किसानों! जमीन लेने से पहले, हम तुमसे पूछेंगे नहीं. जंगलों और पहाड़ों पर रहनेवालों! तुम्हारे पहाड़ों और जंगलों का मूल्य हम जानते हैं, इन्हें हमारे लिए खाली करो, हम तुमसे पूछेंगे नहीं. मजदूरों, श्रम कानूनों के चलते जो कुछ सुरक्षाएं तुम्हें मिली हुईं थी, अब वे बीते दिनों की बातें होंगी. तुम्हारी संगठित सौदेबाजी, तुम्हारी हड़तालों के दिन लद चुके हैं. देखो, हम खेत, खलियानों, जंगल, पहाड़ों से कितनी बड़ी तादाद में उखड़े हुए लोगों की फ़ौज खड़ी कर रहे है, हमारे लिए काम करने के लिए. मुनाफे की राह में सारी बाधाएं दूर करने का हमें 'जनादेश' मिला है. तुम जिसे मुनाफ़ा कह रहे हो, वही 'विकास' है. अधिकारों और संघर्षों के लिवे सड़क पर उतरनेवालों, सावधान! संविधान में प्रदत्त अधिकार दमन से तुम्हारी रक्षां नहीं कर सकेंगे." सच है कि तीसरी दुनिया के देशों में नव-उदारवाद का काम पूंजीवादी लोकतंत्र के अपेक्षया उदार रूप से नहीं , बल्कि अंततः तानाशाही रूप से ही चला करता है.

विकास एक खूबसूरत गुब्बारा है, जो मीडिया के आसमान में बुलंदियों को छू रहा है. मीडिया का बड़ा हिस्सा किसी भी समय से ज़्यादा अब पूंजी के घरानों के हाथ में है. कारपोरेट मीडिया लूट की डोर से बंधी झूठ की पतंग की मानिंद हमारी चेतना के आकाश में लहरा रहा है. लूट और झूठ के साथ टूट और फूट वर्तमान कारपोरेट सत्ता-संस्कृति के प्रमुख अस्त्र हैं. जो लोग सिर्फ 'सूट-बूट' से उसकी शिनाख्त कर रहे हैं, वे 'लूट-झूठ-टूट-फूट' में खुद की संलिप्तता पर पर्दा डाल रहे हैं. राष्ट्रीय, जातिगत, लैंगिक, धार्मिक, नस्लीय और क्षेत्रीय पहचानों और आकांक्षाओं को शान्ति, बराबरी, सौहार्द्र की जगह आपसी वैमनस्य, हिंसा और प्रतिशोध की दिशा में नियोजन अब सूचना और संचार के आधुनिकतम साधनों के ज़रिए भारी प्रबंध-कुशकता के साथ किया जा रहा है. व्हाट्स एप्प या इंटरनेट पर फर्जी तस्वीरें या वीडियो अपलोड करके दंगे कराए गए हैं, हत्याएं की गयी हैं. प्रशिक्षित स्थानीय साम्प्रदायिक टोलियाँ टूट-फूट या तोड़-फोड़ की कार्यवाहियों में दुगुने आत्मविश्वास से जुटी हुई हैं- 'सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का'. सांप्रदायिक उन्माद की गुंजायश तलाशते सत्ताधारी सांसद, मंत्री, प्रवक्ता अपने बयानों से इन टोलियों को उत्साहित करते हैं. कभी अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक धर्म में 'घरवापसी' की सीख दी जाती है, कभी उन्हें मताधिकार से वंचित करने की धमकी, तो कभी उनके धर्मस्थलों को हमले का निशाना बनाया जाता है. कारपोरेट लाभ-लोभ के विरुद्ध काम करनेवालों या फिर सत्ता-प्रेरित साम्प्रदायिक गतिविधियों के विरुद्ध लड़नेवाले सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं को फर्जी मामलों में फंसाने में राजसता का सीधा उपयोग अब आम बात है.

आज आलोचना की संस्कृति का ध्वंस या उसे निष्प्रभावी बनाने के नित नए हथकंडों का आविष्कार और उन्हें आजमाया जाना बताता है कि 'जलती हुई सच्चाइयों' के साक्षात्कार को टाल देने के कितने भी निपुण प्रयास पूंजीवादी समाज करता हो, वह मानवीय विवेक-बुद्धि की प्रतिरोधी आलोचनात्मक चेतना को अंततः हर नहीं सकता, अतः दमन का सहारा लेना ज़रूरी हो उठता है. यह संभव नहीं कि जिस समाज का तेज़ी से 'स्वत्वहरण' किया जा रहा हो, 'लूट-झूठ-टूट-फूट' की सत्ता-संस्कृति जिसे भौतिक और चेतनागत धरातल पर विघटित कर रही हो, उसका कोई भी हिस्सा इसके बारे में विवेकपूर्ण ढंग से न सोचे और इस प्रक्रिया की आलोचना न करे. 'जलते सच' को देखने और दिखाने के लिए बुद्धि-विवेक की आँखें चाहिए. समाज की इन आँखों को अंधा करने के लिए, उनकी विवेक-बुद्धि को हर लेने के लिए, उनकी वर्तमान दुरावस्था की क्षतिपूर्ति के बतौर अतीत की रमणीय मिथकीय कल्पनाओं की आपूर्ति करने से लेकर एक भ्रष्ट और उन्मादी इतिहास-बोध में समाज को दीक्षित करने का काम शिक्षा, संस्कृति और नागरिक समाज की विभिन्न संस्थानों के ज़रिए सरकार तेज़ी से करने में जुटी हुई है. इस सत्ता-संस्कृति के दोनों बाजुओं यानी कारपोरेट लोभ और साम्प्रदायिक उन्माद, किसी भी पक्ष के प्रति आलोचनात्मक चेतना का निर्माण करनेवाले संस्कृतिकर्मियों को अपमानित, प्रताड़ित और असहाय बनाना इस सत्ता-संस्कृति की ज़रुरत है. किताबों को जलाना, नाटकों का मंचन रोक देना, फिल्मों का प्रदर्शन, सभाओं और सेमिनारों को बाधित करने की तो एक परम्परा ही बन गयी है, जो अब प्रत्यक्ष सता-संरक्षण में उफान पर है.

आज एक नया विमर्श रचने की ज़रुरत है. स्वतंत्रता, समानता, नागरिक अधिकार, सामाजिक न्याय, अभिव्यक्ति और सृजन की आज़ादी, आर्थिक स्वावलंबन और धर्मनिरपेक्षता के विमर्श, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के सभी रूपों के अंत के सपने कभी पुराने नहीं पड़ेंगे, लेकिन उन्हें भी मानव-मुक्ति के वर्तमान युग-धर्म के रूप में नया विन्यास चाहिए. हम संस्कृतिकर्मी अपने समस्त कला-कर्म, सृजन और संघर्ष के सभी रूपों की मार्फ़त इस नूतन विन्यास को रच सकें, इसी मंथन और तैयारी के लिए हम 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रेमचंद जयंती (31जुलाई) और 01अगस्त को दिल्ली में मिल रहे हैं. आपका साथ हमारी ताकत और संबल होगा.

( जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद् द्वारा जारी)   

Tuesday, 2 June 2015

नव उदारवादी नीतियों का यथार्थ और श्रमिक वर्ग की चुनौती - कुमार स्वामी


[समकालीन जनमत के जून अंक से] 

(आल इंडिया सेंट्रल काउंसिल आफ ट्रेड यूनियंस (ऐक्टू) का 9वां राष्ट्रीय सम्मेलन 4-6 मई को पटना के रवीन्द्र भवन में आयोजित हुआ। इसका नयापन यह था कि सम्मेलन शुरू होने से पहले 4 मई को स्थानीय गांधी मैदान से मजदूर-किसान अधिकार मार्चनिकाला गया, जो आर. ब्लाक चैराहे पर आकर एक विशाल जनसभा में तब्दील हो गया। चिलचिलाती धूप के बावजूद इस मार्च और सभा में सम्मेलन के प्रतिनिधियों व अतिथियों समेत हजारों की तादाद में मजदूरों और मेहनतकश किसानों ने भाग लिया। मार्च का नेतृत्व ऐक्टू के महासचिव का. स्वपन मुखर्जी, राष्ट्रीय अध्यक्ष एस कुमारस्वामी, ग्रीस में कटौती-छंटनी के खिलाफ चले आंदोलन के नेता निकोलस, नेपाल से कुलबहादुर खत्री व कमलेश झा और बांग्लादेश के मजदूर नेता तपन दत्ता आदि नेता कर रहे थे। इस सभा को इन नेताओं के अलावा भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने भी संबोधित किया। इस सम्मेलन की दूसरी खासियत यह थी कि कांग्रेस और भाजपा से संबद्ध ट्रेड यूनियनों को छोड़, जिन्हें आमंत्रित नहीं किया गया था, शेष सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के प्रमुख नेता सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर मंच पर उपस्थित थे। सबने सम्मेलन को संबोधित किया और दो बातों का सबने अपने भाषण में उल्लेख किया - किसान-मजदूर रैली और ऐक्टू के अध्यक्ष कुमार स्वामी द्वारा बतौर उद्घाटन दिये गये भाषण का। पूरी रिपोर्ट देने की जगह हम यहां उस उद्घाटन भाषण का अविकल अनुवाद दे रहे हैं।)
साथियों,
ओपेन वेन्स आफ लैटिन अमरीकाः फाइव सेंचुरी आफ पाइलेज आफ द कांटीनेंटके लेखक एडुआर्डो गेलयानो ने लिखा था यथार्थ, नियति नहीं होता, एक चुनौती होता है। हम इसे स्वीकार करने के लिए अभिशप्त नहीं हैं।

समूची दुनिया के लोग और देश वित्तीय पूंजी के नव-उदारवादी नीतियों द्वारा लादे गए यथार्थ को चुनौती दे रहे हैं, उसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

लैटिन अमरीका की गुलाबी लहरके बाद अब यूरोप का नंबर है। ग्रीस में सत्ता-परिवर्तनने उल्टी दिशा ले ली है। स्पेन के लोग सम्मान के साथ खाना, नौकरी और छत की मांग कर रहे हैं और यह दिखाने के लिए कि कटौती बहादुर सरकारके आखिरी दिन आ चुके हैं, टिक-टैक टिक-टैक की धुन गा रहे हैं। पुरानाऔर नया’, दोनों यूरोप कटौतियों के खिलाफ जनपक्षधर बदलावों की लड़ाई के अखाड़े में बदल रहे हैं। लैटिन अमरीका का साम्राज्यवाद-विरोधी जनपक्षधर जुलूस जारी है। अमरीका को क्यूबा से समझौते में जाना पड़ रहा है। कुछ सालों पहले अमरीका में ऋणग्रस्तता न सिर्फ जिंदगी की गुणवत्ता को बेहतर बनाने की शर्त बन गई, बल्कि जिंदगी की मूलभूत चीजों के लिए भी कर्जे की जरूरत पड़ने लगी। हर तरह की संपत्ति और आमदनी को पूंजीखोर कर्ज के कंबल से ढँकने लगे। नतीजे में आज की तारीख में अमरीका में पाँच करोड़ लोग छात्र-कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं।   

99 फीसदी के खिलाफ 01 फीसदी आक्यूपाई आंदोलन से जो जन-ऊर्जा निकली थी उसने अपना रंग दिखाया और पूरे अमरीका में न्यूनतम मजदूरी 15 डालर प्रति घंटे की मांग के आंदोलन फैल गए। यूरोप में न्यूनतम मजदूरी और आमदनी में गैर-बराबरी को कम करने के मुद्दों पर आंदोलन हो रहे हैं। एशिया में इन्डोनेशिया जैसा देश, जहां एक समय में कम्युनिस्टों और उनके समर्थकों का बदतरीन नरसंहार किया गया, कुछ दशकों बाद अब जकार्ता और दूसरे शहरों की सड़कों पर न्यूनतम मजदूरी की मांग को लेकर लाखों मजदूरों के जबर्दस्त आंदोलन का गवाह है। लगातार न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के बाद भी चीन में मजदूरी और सेवा-स्थितियों को लेकर 2014-2015 में ढेरों छोटी-छोटी हड़तालें हुईं।  
 
वित्तीय पूंजी ग्रीस को पेंशन, जन-रोजगार और सार्वजनिक क्षेत्रों में बड़ी कटौती करने को बाध्य करने की कोशिश कर रही है पर ग्रीस के लोग इस षड्यंत्र को चकनाचूर करने के लिए कमर कसे हुए हैं। वे दिखा देना चाहते हैं कि कोई भी कर्जदार देश कड़े कटौती उपायोंका विरोध कर के ग्रीस के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है। 
   
दुनिया की आर्थिक हालत में भी बदलाव आ रहा है। ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और दक्षिण अफ्रीका महासंघ) के अलावा चीन, सिल्क रोड पहलकदमी ले रहा है और शंघाई को-आपरेशन एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) जैसे प्रयोग कर रहा है। 500 करोड़ रूपये की प्रारम्भिक पूंजी के साथ शुरू हुई इस पहल में चीन ने 500 करोड़ रूपये और लगाने का वादा किया है। दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंग्डम, फ्रांस, इटली, स्विट्जरलैंड, लकजेमबर्ग और जर्मनी जैसे अमरीका के दोस्त कतार बांधकर एआईआईबी की पहल में शामिल होने को बेताब हैं। अपने गुस्से को बमुश्किल छुपाते हुए अमरीका का इस पहल पर कहना था कि हम चीन की बढ़ती दखलंदाजी पर लगातार नजर रखे हुए हैं। उभरती हुई ताकत के लिहाज से यह तरीका अच्छा नहीं है।

अमरीका के नेतृत्व में चल रहे आतंक के खिलाफ युद्धने तालिबान, अल कायदा एयर आईएसआईएस जैसे भस्मासुर पैदा किए हैं। लोग सीरिया और लीबिया छोड़कर भाग रहे हैं। 2014 में 3500 लोगों की जिंदगी और उनके सपने मेडिटरेनियन समुद्र की गहराईयों में दफन हो गए। 2015 में 1500 लोग हलाक हुए। यूरोप को आंतरिक मंदी की सनक से बाहर निकालना होगा, दृढ़ता से इसके अनचीन्हे भय का सामना करते हुए लोगों को इस भंवर से बाहर निकालना होगा।

सुनामी, बाढ़ और भूकंप और इन सबसे ज्यादा खतरनाक बहुदेशीय आपदा साम्राज्यवाद, से लड़ने के लिए दक्षिण एशियाई देश एकताबद्ध हो रहे हैं।

भयानक आर्थिक संकट, अनवरत वैश्विक युद्ध, बढ़ते पर्यावरणीय संकट आतंकवाद के कसते शिकंजे और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप अमरीका की अगुवाई में चल रही नव-उदारवादी नीतियों के फल हैं। दुनिया भर में जनांदोलनों और लोकप्रिय प्रतिरोधों में अभिव्यक्त होने वाले मजदूर और पूंजी के बीच के संघर्षों और वित्तीय पूंजी की तानाशाही को चुनौती देने वाले देशों से इस नव-उदारवादी हमले का जवाब दिया जा रहा है।

भारत में एक साल बीतते न बीतते मोदी सरकार का रास्ता कठिनतर होता जा रहा है। लोग यह बात मानने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर में कुछ अंकों के उतार-चढ़ाव से देश का विकास नापा जा सकता है। भारत को धीमी चाल से चलने वाले हाथी की जगह मोदी शिकार की ताक में निकले शेर की तरह दिखाना चाहते हैं। मेक इन इंडियाऔर कुछ नहीं, हमारे प्यारे देश के प्राकृतिक और मानवीय संसाधन की लूट के लिए पूंजी को खुला न्योता है, जमीन और श्रम अधिकारों पर हमला है, खाद्य सुरक्षा पर हमला है। मेक इन इंडियाऔर कुछ नहीं, लोगों को बेदखल कर कुछ लोगों के संपत्ति बटोरने का जाल है।

यह सही है कि नव-उदारवादी एजेंडा पिछले कुछ दशकों से जारी है पर मोदी सरकार ने इस एजेंडे को लागू करने में गुणात्मक और मात्रात्मक बदलाव किए हैं। सरकार पाँच एकड़ से कम जोत वाले किसानों को खेती छुड़वाने की उतावली में है, मध्यवर्ग से सब्सिडी (राहत) छोड़ने को कह रही है। सरकार चाहती है कि लोग उससे कोई आशा न रखें। जमीन अधिग्रहण के लिए वह ग्राम सभा के अस्सी फीसदी लोगों की सहमति और सामाजिक प्रभाव के अध्ययन के प्रावधान हटाना चाहती है।

यह सरकार उजाड़ने और विध्वंस करने में व्यस्त है। बाबरी मस्जिद को जमींदोज करने वाली ताकतें ही आज सार्वजनिक क्षेत्र, योजना आयोग, सौदा करने की सामुदायिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं को जमींदोज कर रही हैं। भारत के रेल, रक्षा और वित्त जैसे क्षेत्रों को कमजोर कर रही हैं। मौजूदा श्रम कानूनों को तबाह करते हुए नए मजदूर-विरोधी कानून बना कर यही ताकतें मजदूर-अधिकारों के खिलाफ घोषित युद्ध छेड़े हुए हैं।    

दरअसल मेक इन इंडियाका मतलब देशी और विदेशी कोरपोरेटों के लिए रक्षा-उत्पाद क्षेत्र को खोलना है। अनिल अंबानी ने मोदी का हवाला देते हुए कहा कि देश में आंसू गैस तक नहीं बनती, इससे वे बड़े दुखी थे। लेकिन आंसू गैस के न बनने पर आंसू बहाने की जरूरत अब न अंबानी को है न मोदी को क्योंकि अब रक्षा उत्पादों की मिठाई का हिस्सा अंबानी, टाटा और महिंद्रा जैसी कंपनियों को मिलने वाला है। अनिल अंबानी तीन सी (सीबीआई, सीवीसी और सीएजी) के खिलाफ हल्ला बोल रहे हैं। इससे भारत में अनियंत्रित पूंजीवादी लूट की भविष्य-दिशा का पता चलता है। मोदी सरकार अमरीका और इजराइल से हथियार और युद्ध के साजो-सामान खरीदती है, अगले दिन फ्रांस से 36 रफाएल युद्धक विमान खरीदने के समझौते पर दस्तखत करती है और इस तरह खुद के ही मेक इन इंडियाका भी मजाक उड़ाती है। 

रघुराम राजन और वित्तीय जादूगर अरविंद सुब्रमणियम वित्तीय क्षेत्र की चापलूसी में एक दूसरे को पीछे छोड़ देने की मुहिम में लगे हैं। अरविंद सुब्रमणियम का कहना है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण भारतीय अर्थव्यवस्था के गले की फांस है, वहीं दूसरी तरफ उनके जोड़ीदार राजन साहब फरमाते हैं कि इस (बैक राष्ट्रीयकरण) परंपरा को उलटना ही रिजर्व बैंक का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यभार है।

चूंकि श्रम संविधान की समवर्ती सूची का विषय है और राज्य सरकारें निवेश हासिल करने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर रही हैं, इसलिए मोदी सरकार, राज्य सरकारों के साथ मिलकर श्रम कानूनों पर हमले कर रही है। हमलावरों के इस गिरोह का अगुआ राजस्थान है। राजस्थान ने ट्रेड यूनियन्स ऐक्ट, इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स ऐक्ट, कांट्रैक्ट लेबर (एबालीशन एंड रेगुलेशन) ऐक्ट और फैक्ट्री ऐक्ट में संशोधन कर दिया है। केंद्र सरकार ने स्माल फैक्टरीज बिललाते हुए एक ही वार में चालीस से कम कामगारों वाली फैक्ट्रियों को चैदह श्रम कानूनों से मुक्त कर दिया। संशोधित अप्रेंटिसेज ऐक्ट एक और बानगी है कि सरकार नियमित स्थायी कर्मचारियों के साथ क्या करने की कोशिश कर रही है।

लोकतंत्र पर शातिर हमले हो रहे हैं।मोदी ने उच्चतम न्यायालय से कहा कि वह पांच-सितारा कार्यकर्ताओं के सामने न झुके। यह कहते हुए मोदी उच्चतम न्यायालय पर पोशीदा दबाव डाल रहे हैं कि जिन मामलों में सरकार चाहती है, उनपर न्यायालय उसका साथ दे- मसलन तीस्ता शीतलवाड़ की जमानत की नामंजूरी और कारपोरेट घोटालों के मामले पर सुस्ती। गुजरात सरकार का कंट्रोल आफ टेररिज्म एंड आर्गनाइज्ड क्राइम्स अध्यादेश टाडा और पोटा का नवेला संस्करण है। इस विधेयक के मुताबिक बगैर आरोप के किसी को 180 दिनों के लिए गिरफ्तार रखा जा सकता है। इस कानून का पालन करने के प्रयोजन से और नेकनीयती से किए गए किसी भी काम पर मुकदमा नहीं चल सकता। इस कानून के चलते पुलिस के स्वीकार करने से पहले ही अपराध स्वीकार हो जाता है।

अल्पसंख्यकों पर व्यवस्थित हमले हो रहे हैं। हिंदुत्ववादी ताकतों ने माहौल खराब करके दलितों और महिलाओं पर हमलों को प्रोत्साहित किया है। अन्यकरण’, इस्लाम का दानवीकरण और मुसलमानों का चुन-चुन कर शिकार करना इनके कुछ प्रभावी हथियार हैं। संघर्षशील जनता की एका को तोड़ने के लिए भी इस उन्मादी सांप्रदायिकता का इस्तेमाल किया जा रहा है। कार्पोरेट-सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों के इस रथ को रास्ते में ही ध्वस्त कर देने की जरूरत है।

संघर्षशील ताकतों के लिए उभरती स्थितियां संभावना से भरी हुई हैं। आम अवाम ने इस सरकार की तुक बरतानवी कंपनी राज से मिलानी शुरू कर दी है, लोग इसे अदानी-अंबानी और अमरीका की सरकार कह रहे हैं। अच्छे दिनऔर काला धन वापस लानेके इस सरकार के वायदे जनता के साथ क्रूर मजाक साबित हुए हैं। दिल्ली चुनावों में भाजपा को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। कोयला मजदूरों, बैंककर्मियों और बीएसएनएल कर्मचारियों ने सफल हड़तालें कीं। पूरे देश में मानद और ठेका कर्मचारी प्रतिरोध के रास्ते पर हैं। यह सब कामगार जनता के लड़ाकू मन-मिजाज के लक्षण हैं।

पर हम वामपंथी ताकतों के चुनावी प्रदर्शन में गिरावट भी देख रहे हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर उभरते हुए नौजवान भारत और वामपंथ में कोई संबंध नहीं बन पा रहा है। आधुनिक दुनिया ने कल्पनातीत दौलत बनाई है। हर आदमी के लिए तकनीक ने इस दौलत को देख पाना आसान बना दिया है। यह दौलत सामाजिक उत्पादन का फल है। जरूरतें और इच्छाएं अपनी प्रकृति में सामाजिक होती हैं। लोग बेहतर जिंदगी चाहते हैं। यह चाहना बहु-आयामी होता है। ऐसे में ट्रेड यूनियनों को सामाजिक भूमिका निभानी होगी। उनका लोकतांत्रीकरण करना होगा। मजदूरों का राजनीतिकीकरण करना होगा।

पूंजीवादी पुनर्गठन के कारण मजदूर वर्ग की संरचना में बदलाव आया है। इसके कारण नई चुनौतियां खड़ी हुई हैं। इस मौके पर इन चुनौतियों को स्वीकार करते हुए विकसित होने के लिए ट्रेड यूनियन आंदोलन को बहुत कुछ करना होगा। ट्रेड यूनियन आंदोलन की संकीर्णता को तोड़ने के लिए नए विचार और नई पहलकदमियां बेहद जरूरी हैं। नए औद्योगिक क्षेत्रों और इलाकों पर ध्यान केंद्रित करते हुए मजदूरों की नई श्रेणियों को संगठित करना होगा। युवा कैडरों और नेताओं की भारी तादात को आकर्षित और विकसित करने का कार्यभार हमारे कंधों पर है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों तक पहुंचने के लिए सामाजिक आयामों के साथ लगातार और प्रतिबद्धता के साथ इलाकावार काम करना होगा।

2013 की फरवरी में 20 और 21 तारीख को मजदूर वर्ग की हड़ताल संप्रग सरकार को हराने वाले कारणों में से एक थी। एक बार फिर मजदूर वर्ग द्वारा वैसी ही हड़ताल करने का समय आ गया है। एक्टू निश्चित ही इस दिशा में आगे बढ़ेगा। उम्मीद है और भी केंद्रीय ट्रेड यूनियनें इस दिशा में सोच रही होंगी।

मजदूर वर्ग को किसानों और लोकतांत्रिक ताकतों तक पहुंचाना होगा। आल इंडिया पीपुल्स फोरम (एआईपीएफ) में शामिल एक्टू अपने नौवें सम्मेलन से इस नारे को बुलंद करता है- गांव-शहर से उठी आवाज ! नहीं चलेगा कंपनी राज !!

तबाही और बरबादी के धुंधलके में से हम एक जीवंत, गतिशील, जिम्मेदार और सक्रिय मजदूर वर्ग का आंदोलन रचेंगे।

मैं अपनी बात गैलियानों के इन शब्दों के साथ समाप्त करता हूं, ‘‘मनुष्य जाति के इतिहास में तबाही की हर कार्यवाही का देर-सबेर जवाब मिला है, वह जवाब है रचना।

(ऐक्टू के 9वें राष्ट्रीय सम्मेलन में दिया गया अध्यक्षीय वक्तव्य, 4-5 मई 2015)

Sunday, 19 April 2015

कंपनी राज का आगाज

                                                [संपादकीय, समकालीन जनमत, मार्च, 2015]                                               

आम तौर पर कंपनी राज शब्द का इस्तेमाल ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के लिए होता रहा है। जो भारत में व्यापार करने आई थी, जिसके पास अपनी सेना थी, जो भारतीय सेना के साथ अपना काम करती थी, और जिसके पास अपने प्रशासनिक अधिकार थे, जिसने आपसी फूट के शिकार रियासतों पर धीरे-धीरे कब्जा कर लिया, जिसने इस देश के प्राकृतिक संसाधनों को भीषण तरीके से लूटा और जनता को कंगाल बनाया। जिसके खिलाफ 1857 में जबर्दस्त जनविद्रोह हुआ, जिसे कुचलने के लिए उसने अभूतपूर्व नृशंसता का परिचय दिया। हाल में यह सुनने में आया कि उस पुरानी ईस्ट इंडिया कंपनी को एक भारतीय ने खरीद लिया है। 

यह दौर अमेरिकी साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का है, जो भारत समेत दुनिया के दूसरे देशों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट में लगी हुई हैं और उन देशों की राजनीतिक सत्ता पर अपना नियंत्रण कायम रखना चाहती हैं, ताकि लूट और मुनाफे का निर्बाध अधिकार उन्हें हासिल रहे। लेकिन यह बर्बरता तब और बढ़ जाती है, जब पूंजी अवसादग्रस्त होती है। यही कारण है कि आर्थिक मंदी के बाद पूरी दुनिया में उन्माद की राजनीति कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। खासकर उन देशों में जहां  लूट और मुनाफे की ज्यादा संभावना है, वहां की अर्थनीति उन्माद और कत्लेआम की राजनीति के सहारे ही चल रही है। 

अपने देश में काफी जनदबाव में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए जिस भूमि अधिग्रहण कानून में कुछ बदलाव किए गए थे, केंद्र में भाजपा की सरकार आते ही उन्हें पलट दिया गया। यह सरकार लूट  की अर्थनीति और उन्माद की राजनीति की अपने आप में मिसाल है। हमने जनमत के इस अंक में इन दोनों पहलुओं पर सामग्री दी है। मोदी का राज किस तरह कंपनी राज में तब्दील हो चुका है, इसे इस सरकार के हालिया बजट पर केंद्रित डाॅ. भारती के लेख को पढ़ते हुए समझा जा सकता है। इस लेख में इस तथ्य को उजागर करते हुए कि पहले से ही अधिगृहित की गई हजारों हेक्टयेर जमीन पर कोई विकास परियोजना शुरू नहीं की गई, हड़बड़ी में सरकार द्वारा भूमि-हड़प अध्यादेश पारित करने पर सवाल खड़ा किया गया है। मध्याह्न भोजन, जनस्वास्थ्य तथा बाल विकास के बजट में की गई कटौतियों और वृद्धों, विधवाओं और विकलांगों को दिए जाने वाले पेंशन में कोई बढ़ोत्तरी न किए जाने   को सरकार के जनविरोधी रवैये के तौर पर चिह्नित किया गया है। इसमें इसके आंकड़े भी दिए गए हैं कि काॅरपोेटपरस्त सरकारें किस तरह आम आदमी को मिलने वाली सब्सिडी के मुकाबले कारपारेट कंपनियों को अधिक रियायत दे रही हैं।

मोदी सरकार किस तरह रोजगार, आजीविका, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में जारी योजनाओं को कमजोर कर रही है या लोगों को उनके फायदे से वंचित करने की साजिशें रच रही है, इसके बारे में इस अंक में हम लेख प्रकाशित कर रहे है।

अर्थनीति हो या शिक्षा या पुलिस प्रशासन और न्याय व्यवस्था- किसी का गरीबों, मेहनतकशों और दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति समानतापूर्ण व्यवहार नहीं है। इस विभेदपूर्ण रुख को ही काॅमन सेंस बना देने की हरसंभव कोशिश की जाती रही है। सत्ता संरक्षित सांप्रदायिक-अंधराष्ट्रवादी गिरोह विभेद, घृणा और उन्माद को बढ़ावा देने में लगे हैं। आर. अखिल ने अपने लेख ‘लोकतंत्र पर हावी होते भीड़तंत्र के खतरे’ में इसे बखूबी चिह्नित किया है कि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, इराक, सीरिया, लीबिया, ट्यूनीशिया, श्रीलंका, बर्मा, चीन, फिलीपींस, थाईलैंड और मालदीव में भी इसी तरह का सिलसिला जारी है। 

राष्ट्र-राज्य के कारपोरेट कंपनियों  के आगे आत्मसर्मपण और लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले के इस दौर में हम डाॅ. अंबेडकर के दस्तावेज ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ पर रामायन राम का एक जरूरी आलेख इस अंक में प्रकाशित कर रहे हैं। जिसमें दलितों-वंचितों और अल्पसंख्यकों के लोकतांत्रिक अधिकारों के संदर्भ से व्यवस्था की आलोचना की गई है और राज्य नियंत्रण से मुक्त निजीकरण के खतरों से भी अवगत कराया गया है।

इन पंक्तियों को लिखते वक्त दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा के कारपोरेटपरस्त-सांप्रदायिक फासीवाद की राजनीति के विजय अभियान को रोकने वाली ‘आप’ पार्टी में जिस तरह का जूतम-पैजार मचा हुआ है और जिस तरह दिल्ली में मजदूरों के प्रदर्शन को पुलिस ने कुचला है, उसमें एक स्पष्ट संकेत मौजूद है। काॅरपोरेटपरस्त शासकवर्ग के खिलाफ जनता की जो लड़ाइयां देश में चल रही हैं, वे बड़ा रूप अख्तियार करेंगी, यह अवश्यंभावी लगता है।

भगतसिंह की बात इन लड़ाइयों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य देती है कि ‘‘यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता...

हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करे। किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि जीवन और मृत्यु की बाजी लग जाए।...पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति पूरा नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नहीं हो जाता।’’

(20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर के नाम पत्र का अंश) 

Monday, 13 April 2015

'राज्य और अल्पसंख्यक'- डॉ. अंबेडकर के क्रांतिकारी विचारों का दस्तावेज़ !

[समकालीन जनमत, 
अप्रैल 2015 अंक से]

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा के सदस्य तथा प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में भारतीय संविधान को वर्तमान स्वरूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। चूंकि संविधान सभा के समक्ष आए प्रस्तावों पर बहस-मुबाहिसे के बाद बहुमत से पारित प्रस्तावों को संकलित किया गया, इसलिए संविधान सभा के ज्यादातर सदस्यों के विचारों और दृष्टिकोण का प्रतिबिंब भारतीय संविधान है। लेकिन प्रारूप समिति के अध्यक्ष से अलग देश के बहुसंख्यक दलितों, शोषितों के प्रतिनिधि के रूप में डॉ. अंबेडकर के ज्यादातर प्रगतिशील प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया गया था। अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अस्पृश्यों के लिए डॉ. अंबेडकर अपनी मांग की अपेक्षा बहुत ही कम प्राप्त कर सके थे।

भारतीय संविधान तथा शासन-प्रणाली में अंबेडकर के विचारों के अनुरूप क्या नहीं है, इसे जानने के लिए हमें उनके द्वारा लिखा गया दस्तावेज ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ पढ़ना चाहिए। ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में डॉ. अंबेडकर ने अपने उन समग्र क्रांतिकारी विचारों को संग्रहित किया है जो उनके समूचे राजनैतिक दर्शन तथा व्यवहार का निचोड़ है। ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ पढ़कर यह पता चलता है कि अम्बेडकर अपने समकालीन राष्ट्रीय नेताओं से किस प्रकार कहीं ज्यादा प्रगतिशील, लोकतांत्रिक तथा आधुनिक सोच वाले थे। डॉ. अंबेडकर के नाम पर देश में दलित अस्मिता की राजनीति करने वाली ताकतों ने उन्हें भारत के पूंजीवादी-सामंतवादी सत्ता में भागीदारी के दलित-महत्वाकांक्षा का प्रतीक बनाकर पेश किया जो मूलतः डॉ. अंबेडकर की वैचारिक प्रेरणा के बिल्कुल विपरीत है। राज्य और अल्पसंख्यक में हम देखते हैं कि वस्तुतः डॉ. अंबेडकर भारतीय शासन-सत्ता के चरित्र को पूरी तरह बदल कर सत्ता के केंद्र में मजदूरों-किसानों तथा दलितों-वंचितों को स्थापित करना चाहते थे, जाहिर है संवैधानिक माध्यम से। ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ भारतीय संविधान का वह रूप है जिसे डॉ. अंबेडकर आकार देना चाहते थे। डॉ. अंबेडकर किस तरह का भारत बनाना चाहते थे इसकी स्पष्ट समझदारी हमें ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में दिखती है। राज्य और अल्पसंख्यक वस्तुतः भारत की संविधान निर्मात्री सभा के समक्ष अनुसूचित जाति-जनजाति परिसंघ की ओर से दिया गया ज्ञापन है, जिसे डॉ. अंबेडकर ने तैयार किया था। देश के करोड़ों दलित-उत्पीडि़त जनता की वर्तमान हालत के संदर्भ में यह भारतीय इतिहास की महान विडंबना है कि इस ज्ञापन प्रस्ताव को संविधान सभा ने स्वीकार नहीं किया, लेकिन इसका महत्त्व इस बात में है कि उसमें अंबेडकर के क्रांतिकारी जनवाद के विचारों का व्यावहारिक पक्ष जोरदार तरीके से अभिव्यक्त हुआ है।

इस ज्ञापन में डॉ. अंबेडकर ने अस्पृश्य जातियों, गरीबों, वंचितों के हितों को मौलिक अधिकारों के वृहत्तर संदर्भ के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया है। दलितों की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक सुरक्षा का प्रश्न महज संवैधानिक संरक्षणकारी दायित्व नहीं बल्कि संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का मूलभूत तत्व है। राज्य और अल्पसंख्यक की मूल भावना को स्पष्ट करते हुए बाबा साहब ने प्रस्तावना में लिखा- ‘‘इस ज्ञापन में मूल अधिकारों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों और अनुसूचित जातियों के सुरक्षा उपायों की परिभाषा दी गई है। जिन लोगों का यह विचार है कि अनुसूचित जातियां अल्पसंख्यक नहीं हैं वे यह कह सकते हैं कि मैंने निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण किया है। यह धारणा कि अनुसूचित जातियां अल्पसंख्यक नहीं हैं, उच्च और शक्तिसम्पन्न हिन्दू बहुसंख्यक की ओर से जारी की गई एक नई व्यवस्था है और अनुसूचित जातियों से कहा जाता है कि वे इस बात को मानकर चलें। लेकिन बहुसंख्यक वर्ग के प्रवक्ता ने इसकी व्याप्ति और इसका अर्थ नहीं बताया है। नवीन एवं स्वतंत्र विचारों वाला कोई भी व्यक्ति इसे सामान्य प्रस्ताव के रूप में देखते हुए जब यह कहेगा कि इसके दो निर्वचन (व्याख्या) किए जा सकते हैं, तो ऐसा कहना न्यायोचित होगा। मैं इसका निर्वचन यह करता हूं कि अनसूचित जातियों की दशा अल्पसंख्यकों से भी खराब है और नागरिकों तथा अल्पसंख्यकों को जो भी संरक्षण दिए जाएंगे, वे अनुसूचित जातियों के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। दूसरे शब्दों में, इसका अभिप्राय यह है कि अनुसूचित जातियों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति अन्य नागरिकों और अल्पसंख्यकों की तुलना में इतनी खराब है कि उन्हें उस संरक्षण के अलावा जिसे वे नागरिकों तथा अल्पसंख्यकों के नाते प्राप्त करेंगे, बहुसंख्यकों के अत्याचार और भेदभाव के विरूद्ध विशेष सुरक्षा उपायों की जरूरत होगी।’’ स्पष्ट है कि डॉ. अंबेडकर अनुसूचित जातियों के लिए अल्पसंख्यक के दर्जा प्राप्त करने की वकालत करते हैं, ऐसा वे गोलमेज सम्मेलन में उठाए गए ‘कम्युनल अवार्ड’ के तहत पृथक निर्वाचन मण्डल की मांग के समय से करते रहे हैं। पूना पैक्ट के तहत डॉ. अंबेडकर को अपनी यह मांग छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा था। डॉ. अंबेडकर प्रारम्भ से ही यह सिद्ध करने में लगे रहे कि अछूत व शूद्र जातियां हिंदू पहचान के अंतर्गत समाहित नहीं की जा सकतीं, इसलिए उन्हें भी भारत में अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए। 

‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में वे पुनः इस समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। इसके अलावा देशी राज्यों की समस्याओं कोभी इस ज्ञापन मंे शामिल किया था। इस ज्ञापन को डॉ. अंबेडकर ने संविधान के अनुच्छेदों के रूप में तैयार किया था, उनका इरादा इसे संविधान सभा में प्रस्तुत करने का था लेकिन अपने सवर्ण हिंदू मित्रों के आग्रह पर उन्होंने इस ज्ञापन को सार्वजनिक बहस के लिए व्यापक रूप से प्रचारित किया था। आज यह ज्ञापन भारतीय राष्ट्र के समक्ष एक प्रश्न चिह्न की तरह खड़ा है। यह दस्तावेज न सिर्फ डॉ. अंबेडकर के राष्ट्र निर्माण के प्रति अपनाए गए दृष्टिकोण, उनकी प्रगतिशील लोकतांत्रिक चेतना को सामने लाता है बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के उन अधूरे आशयों की पड़ताल भी करता है जिसके कारण आज भी हमारे देश में करोड़ों दलितों को, भूमिहीनों-गरीबों को मानवीय गरिमा प्राप्त नहीं हो सकी है। इस लेख में हम बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के उन महत्त्वपूर्ण प्रस्थापनाओं पर चर्चा करेंगे जिन पर बहुत कम चर्चा की गई है तथा डॉ. अंबेडकर का नाम लेकर अस्मिता की राजनीति करने वाले लोगों ने भी जान-बूझकर इन विचारों को छिपाया। ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ जैसा कि पहले बताया गया कि संविधान के अनुच्छेद, अनुभाग, खंड इत्यादि में क्रमबद्ध तरीके से विभाजित करके लिखा गया है। इसमें उद्देशिका के अलावा कुल दो अनुच्छेद हैं। अनुच्छेद-1 में ‘देशी राज्यों’ के संघ में शामिल होने संबंधी प्रस्तावों को शामिल किया गया है, जिस पर चर्चा इस लेख का उद्देश्य नहीं है। अनुच्छेद-2 के अंतर्गत नागरिकों के मूल अधिकारों के संबंध में विस्तार से चर्चा है। दो अनुच्छेदों के साथ ‘परिशिष्ट’ के अंतर्गत स्पष्टीकरण टिप्पणी में डॉ. अंबेडकर ने अपने प्रस्तावों को विश्लेषित करने के लिए जो व्याख्याएं तथा स्पष्टीकरण दिया है, आज उन्हीं का महत्त्व ज्यादा है।

डॉ. अंबेडकर संविधान के इस प्रारूप के अन्तर्गत ‘मूल अधिकारों पर आक्रमण के विरुद्ध उपचार’ के अंतर्गत खंड-4 में यह व्यवस्था करते हैं-

‘‘संयुक्त राज्य भारत अपने संविधान की विधि के भाग के रूप में यह घोषणा करेगा कि-

1. वे उद्योग जो प्रमुख उद्योग हैं अथवा जिन्हें प्रमुख उद्योग घोषित किया जाए, राज्य के स्वामित्व में रहेंगे और राज्य द्वारा चलाए जाएंगे; 

2. वे उद्योग के प्रमुख उद्योग नहीं हैं, किन्तु बुनियादी उद्योग हैं, राज्य के स्वामित्वाधीन रहेंगे और राज्य द्वारा या राज्य द्वारा स्थापित निगमों द्वारा चलाए जाएंगे,

3. बीमा राज्य के एकाधिकार में रहेगा और राज्य हर नागरिक को विवश करेगा कि वह अपनी आय के अनुरूप ऐसी जीवन बीमा पाॅलिसी ले, जो विधानमण्डल द्वारा विहित की जाए,

4. कृषि राज्य उद्योग होगा; .... कृषि उद्योग को संगठित स्वरूप देने तथा उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व उद्देश्य से डॉ. अंबेडकर खंड-4 में ही यह व्यवस्था दी- ‘‘राज्य अर्जित भूमि को मानक आकार के फार्मों में विभाजित करेगा और उन्हें गांव के निवासियों को पहरेदारों के रूप में (कुटुंबों के समूह से निर्मित) आगे दी गई शर्तों पर खेती करने के लिए देगा: 

(क) फार्म पर खेतीबारी सामूहिक फार्म के रूप में की जाएगी;

(ख) फार्म पर खेतीबारी सरकार द्वारा जारी किए गए नियमों और निर्देशों के अनुसार की जाएगी;

(ग) पट्टेदार फार्म पर उचित रूप से उगाही करने योग्य प्रभार अदा करने के बाद फार्म की शेष उपज को आपस में विहित रीति से बांटेंगे;

(घ) भूमि गांव के लोगों की जाति या पंथ के भेदभाव के बिना पट्टे पर दी जाएगी और ऐसी रीति से पट्टे पर दी जाएगी कि कोई जमींदार न रहे, कोई पट्टेदार न रहे और न कोई भूमिहीन मजदूर रहे;

(ङ) राज्य पानी, जोतने-बोने के लिए पशु, उपकरण, खाद, बीज, आदि देकर सामूहिक फार्म की खेती के लिए वित्तीय सहायता देने के लिए बाध्य होगा।’’

ये वो प्रस्ताव हैं जो उद्योग व कृषि जैसे उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व के बजाए सार्वजनिक मालिकाने व सामूहिक श्रम के सिद्धांत पर आधारित हैं। निश्चित तौर पर यदि भारतीय राष्ट्र राज्य खुद को इन सिद्धांतों को लागू करने में समर्थ पाता तो यह न सिर्फ भारत बल्कि समूची दुनिया के जनतांत्रिक इतिहास की सर्वाधिक क्रांतिकारी घटना होती, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। डॉ. अंबेडकर इन अवधारणाओं को सिर्फ प्रस्ताव और घोषणा तक ही सीमित करके नहीं देखते। इसके पीछे के ठोस सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को भी वे सामने लाते हैं। इस खंड-4 के अंतर्गत ही वे यह उपबंध भी करते हैं कि यह योजना हर हाल में संविधान लागू होने के दस वर्ष के भीतर लागू हो जानी चाहिए। किसी भी स्थिति मंे संविधान लागू होने की तारीख से दसवें वर्ष के बाद इस योजना को टाला नहीं जा सकता।

अब आइए देखते हैं कि उपरोक्त प्रस्तावों को सूत्रबद्ध करने के पीछे डॉ. अंबेडकर के तर्क क्या हैं। ‘परिशिष्ट’ के अंतर्गत अनुच्छेद-2 के अनुभाग-2 के खंड-4 का स्पष्टीकरण देते हुए डॉ. अंबेडकर लिखते हैं- ‘‘इस खंड के पीछे मुख्य प्रयोजन राज्य पर यह दायित्व डालता है कि वह लोगों के आर्थिक जीवन को इस प्रकार योजनाबद्ध करे कि उससे उत्पादकता का सर्वोच्च बिंदु हासिल हो जाए और निजी उद्यम के लिए एक भी मार्ग बंद न हो और संपदा के समान वितरण के लिए भी उपबंध किया जाए। इस खंड के अंतर्गत वर्णित योजना के अनुसार कृषि के क्षेत्र में राजकीय स्वामित्व प्रस्तावित हैं, जहां सामूहिक पद्धति से खेतीबारी की जाए तथा उद्योग के क्षेत्र में राजकीय समाजवाद का रूपांतरित रूप भी प्रस्तावित है। इसमें कृषि एवं उद्योग के लिए आवश्यक पूंजी सुलभ कराने की बाध्यता राज्य के कंधों पर स्पष्ट रूप से डाली गई है। राज्य द्वारा पूंजी उपलब्ध कराए बिना कृषि या उद्योग से बेहतर परिणाम नहीं लिए जा सकते। इसमें यह भी प्रस्तावित है कि बीमा का दोहरे उद्देश्य से राष्ट्रीयकरण किया जाए। व्यक्ति को निजी बीमा फर्म की अपेक्षा राष्ट्रीयकृत बीमा से अधिक सुरक्षा मिलती है, क्योंकि उसके अंतर्गत राज्य के संसाधन व्यक्ति की बीमा राशि के अंतिम भुगतान की प्रतिभूति के रूप में गिरवी रहते हैं। साथ ही राज्य को भी अपनी आर्थिक योजना के वित्त-प्रबंधन के लिए आवश्यक संसाधन मिल जाते हैं। अन्यथा राज्य को ऊंची ब्याज दर पर बाजार से धन उधार लेना पड़ेगा। भारत का तेजी से औद्योगीकरण करने के लिए राजकीय समाजवाद अनिवार्य है। निजी उद्यम ऐसा नहीं कर सकता और यदि कर सकता है तो भी संपदा की विषमताओं को जन्म देगा, जो निजी पूंजीवाद ने यूरोप में पैदा की है और जो भारतीयों के लिए एक चेतावनी होगी। चकबंदी और काश्तकारी विधान व्यर्थ से भी बदतर हैं। उनसे कृषि-क्षेत्र समृद्ध नहीं हो सकता। न तो चकबंदी और न ही काश्तकारी विधान छह करोड़ अस्पृश्यों के लिए सहायक हो सकते हैं, जो भूमिहीन मजूदर हैं। न तो चकबंदी और न ही काश्तकारी विधान उनकी समस्याओं का निराकरण कर सकते हैं। प्रस्ताव में वर्णित विधि से स्थापित सामूहिक कार्य ही उनके लिए सहायक हो सकते हैं। संबंधित हितों के स्वत्वहरण का कोई प्रश्न नहीं है। परिणाम स्वरूप इस आधार पर इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया जाना चाहिए।’’

‘‘आज हम सब आजाद भारत के पिछले 67-68 वर्षों के अनुभव से यह जानते हैं कि डॉ. अंबेडकर के इस प्रस्ताव का विरोध किया जाना अवश्यंभावी था क्योंकि अपने प्रस्ताव में उन्होंने भारतीय राष्ट्र के लिए सबसे असहज कर देने वाले डरावने सिद्धांतों को ‘राजकीय-समाजवाद’ के रूप में स्थापित कर दिया था। देशी-विदेशी पूंजी के एजेंट और ब्राह्मणवादी सामंती सत्ता के केंद्र के रूप में कार्यरत हमारे राष्ट्रीय नेता इस प्रस्ताव का विरोध जरूर करेंगे इस बात का अंदेशा डॉ. अंबेडकर को था। इसीलिए उन्होंने कहा कि संवैधानिक विधि के छात्र तुरंत विरोध करेंगे, वे पूछेंगे कि क्या यह प्रस्ताव सामान्य प्रकार के मूल अधिकारों की परिधि से बाहर नहीं जाता? डॉ. अंबेडकर इसका उत्तर नहीं में देते हैं। अपनी बात को वे जोरदार तर्क देते हुए प्रमाणित करते हैं, वे लिखते हैं- ‘‘जो बेरोजगार हैं, उनसे पूछिए कि मूल अधिकारों का उनके लिए क्या महत्त्व है। यदि किसी बेरोजगार से एक ऐसी नौकरी जिसमें कुछ वेतन मिले कोई निश्चित कार्य घंटे न हों और संघ में शामिल होने की मनाही हो तथा वाक्, संगम, धर्म आदि की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रयोग के बीच निर्वाचन करने के लिए कहा जाए, तो क्या इसमें कोई संदेह हो सकता है कि उसका निर्वाचन क्या होगा। दूसरा निर्वाचन हो भी कैसे सकता है? भूख का भय, मकान खो देने का भय, बचत, यदि कोई है, से हाथ धो बैठने का भय, बच्चों को स्कूल से निकाले जाने का भय, सार्वजनिक खैरात पर एक बोझ बने रहने का भय, सार्वजनिक खर्च पर दाह या दफन किए जाने का भय- ये सब तत्व इतने प्रबल हैं कि ये किसी आदमी को अपने मूल अधिकारों के लिए खड़ा होने की इजाजत नहीं देते। इस प्रकार बेरोजगार व्यक्ति को काम करने और जीवन-निर्वाह करने का विशेषाधिकार पाने की खातिर अपने मूल अधिकार को छोड़ने के लिए विवश होना पड़ता है।’’

आज हम डॉ. अंबेडकर के इन प्रस्थापनाओं को आजाद भारत में लगभग हू-ब-हू साबित होता हुआ पाते हैं। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के राज में नागरिकों के मूल अधिकारों के लिए कोई स्थान नहीं बचा है। भारत में मूल अधिकार अब केवल दिखावे की चीज रह गयी है। मजदूरों को यूनियन बनाने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है, यह सब हम मारूति मजदूरों के मामले में देख चुके हैं, ऐसे उदाहरणों की भरमार है, जहां यह सिद्ध होता है कि बाजारवादी अर्थव्यवस्था में मौलिक अधिकारों को ठेंगे पर रखा जाता है। भारत में आज के कृषि संकट तथा बेरोजगारी की विकराल समस्या के वर्तमान रूप को भी हम डॉ. अंबेडकर के उपरोक्त विश्लेषण में आशंका के रूप में पाते हैं।

डॉ. अंबेडकर अपने विश्लेषण में निजी स्वामित्व पर आधारित उद्योग व कृषि की विसंगतियों को भी उजागर करते हैं- ‘‘यह सच है कि जहां राज्य हस्तक्षेप से विमुख रहता है, वहां जो शेष रहता है, वह है स्वाधीनता... यह किसे और किसके लिए? प्रकटतः यह स्वाधीनता जमींदारों को लगान बढ़ाने, पूंजीपतियों को कार्य के लिए घंटे बढ़ाने और मजदूरी घटाने की स्वाधीनता है। दूसरे शब्दों में, जिसे राज्य के नियंत्रण से मुक्ति कहते हैं, वहीं प्राइवेट नियोजक के एकाधिकार का दूसरा नाम है।’’

उपरोक्त समस्याओं के निराकरण के रूप में डॉ. अंबेडकर ‘राजकीय समाजवाद’ की अवधारणा सामने लाते हैं। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि अंबेडकर के समाजवाद की अवधारणा, माक्र्सवादी चिंतन प्रणाली पर आधारित वैज्ञानिक समाजवाद से प्रेरित नहीं है। डॉ. अंबेडकर प्रचलित अर्थ में माक्र्सवादी नहीं हैं। अपने चिंतन व कर्म में उन्होंने फ्रांस की लोकतांत्रिक क्रांति के समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व के सर्वोच्च आदर्शों को आत्मसात किया था, लेकिन भारत जैसे पिछड़े-कृषि समाज और औपनिवेशिक गुलामी की प्रतिछाया से ग्रस्त देश के बहुसंख्यक गरीबों-भूमिहीनों तथा अछूत-शूद्र जातियों के आर्थिक व सामाजिक आजादी का उनका सरोकार उन्हें सहज रूप से समाजवाद की ओर ले जाता है। यह एक ईमानदार-क्रांतिकारी व गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति रखने वाले वर्ग सचेत नेता की स्वाभाविक चिंतन यात्रा है। यहां यह भी कहना गलत न होगा कि पूंजीवादी लोकतंत्र के सर्वाधिक रेडिकल रूप की सीमा ही वस्तुतः डॉ. अंबेडकर के इस चिंतन की सरहद है। यही कारण है कि भारत में सर्वहारा की तानाशाही की जरूरत को रेखांकित करते हुए भी डॉ. अंबेडकर समाजवाद के राजकीय स्वरूप की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं जो भारत के शासन-प्रणाली में संवैधानिक रूप से स्थायी हो। बहरहाल, राजकीय समाजवाद के संदर्भ में डॉ. अंबेडकर के विचार देखिए- 

‘‘तो फिर इसका (राजनैतिक लोकतंत्र का- ले.) विकल्प क्या है? विकल्प है तानाशाही। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तानाशाही वह स्थायित्व प्रदान कर सकती है, जो राजकीय समाजवाद के फलने-फूलने की एक अनिवार्य शर्त के रूप में जरूरी है। किन्तु तानाशाही शासन के खिलाफ एक बात है, जो अवश्य सामने आएगी। जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता में विश्वास रखते हैं वे तानाशाही का कड़ा विरोध करते हैं और स्वतंत्र समाज के लिए संसदीय लोकतंत्र का उचित शासन-प्रणाली के रूप में आग्रह करते हैं, क्योंकि वे यह महसूस करते हैं कि व्यक्ति स्वतंत्रता संसदीय लोकतंत्र के अंतर्गत ही संभव है न कि तानाशाही के अंतर्गत।... अतः समस्या है तानाशाही रहित राजकीय समाजवाद अपनाने की, संसदीय लोकतंत्र सहित राजकीय समाजवाद पाने की। इसका हल संसदीय लोकतंत्र को रखना तथा संविधि द्वारा राजकीय समाजवाद विहित करना ही प्रतीत होता है, ताकि संसदीय बहुमत उसे निलंबित, संशोधित या निराकृत न कर पाए। इसी मार्ग से तीन उद्देश्य प्राप्त किए जा सकते हैं। ये हैं, समाजवाद की स्थापना, संसदीय लोकतंत्र जारी रखना और तानाशाही से बचना।’’

ये विचार डॉ. अंबेडकर के हैं, जो भारत के संविधान में राजकीय समाजवाद के अंतर्गत उद्योगों व कृषि के राष्ट्रीयकरण की बात करते हैं, जो भारत जैसे नव स्वतंत्र देश के लिए क्रांतिकारी जनवाद की दिशा में बढ़ाया गया एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता था। दुर्भाग्य से भारत के राजनैतिक चिंतन तथा व्यावहारिक राजनीति में डॉ. अंबेडकर के विचारों को लेकर चलने वाले लोगों ने उनके इन वैचारिक स्थापनाओं को छिपा कर रखा, और भारत के सवर्ण-सामंती और पूंजीवादी सत्ता के सुविधानुसार डॉ. अंबेडकर की अस्मितावादी छवि गढ़ने की कोशिश की गयी।

‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में अनुच्छेद-2 के अनुभाग-3 के अंतर्गत अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए उपबंध किए गए हैं, अनुभाग-4 में अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षा उपायों की बात की गयी है। यहां पर डॉ. अंबेडकर अनुसूचित जातियों को अल्पसंख्यक मानने तथा उनके सामाजिक बहिष्कार और उत्पीड़न पर प्रभावी रोक लगाने तथा विधान मंडल में उनकी समुचित व न्यायपूर्ण भागीदारी की जोरदार वकालत करते हैं। विधान मंडल में अनुसूचित जातियों की समुचित भागीदारी तथा उनके राजनीतिक संरक्षण के लिए उन्होंने पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था को लागू करने के प्रस्ताव को फिर से सामने रखा। पूना-समझौते के तहत अछूत जातियों के लिए विधान मंडल में किए गए आरक्षण की व्यर्थता को डॉ. अंबेडकर अपने अनुभवों से जानते थे। बहुसंख्यक हिंदुओं द्वारा सामाजिक भेद-भाव के शिकार अनुसूचित जातियों को ठीक इसी कारण से मुसलमानों के समकक्ष अल्पसंख्यक मानते हैं- ‘‘यह कहना कि अनुसूचित जातियां हिंदू हैं और इसलिए वे पृथक निर्वाचक-मंडल की मांग नहीं कर सकतीं, एक ही तर्क को अलग ढंग से प्रस्तुत करना है। धर्म को संवैधानिक सुरक्षा के लिए निर्णायक मानना इस तथ्य की उपेक्षा करता है कि धार्मिक जुड़ाव के साथ-साथ तीव्र सामाजिक पार्थक्य और भेद-भाव भी रहता है। यह मान्यता कि पृथक निर्वाचक-मंडल पृथक धर्म के साथ जुड़ा हुआ है, इस कारण बनी है कि जिन समुदायों को पृथक निर्वाचक-मंडल मिला हुआ है, वे धार्मिक समुदाय हैं। लेकिन यह सही नहीं है। मुसलमानों को इसलिए पृथक निर्वाचक-मंडल नहीं मिला कि वे धर्म के मामले में हिंदुओं से भिन्न हैं।’’ उन्हें इसलिए पृथक निर्वाचक-मंडल मिला है कि (और यह मूल कारण है) मुसलमानों और हिंदुओं के सामाजिक संबंधों में भेद-भाव है।’’

पृथक निर्वाचक-मंडल की बात वर्तमान भारत में लागू करने की बात आज संभवतः सोची नहीं जा सकती, लेकिन यह समझा जा सकता है कि वर्तमान भारत में सांप्रदायिकता और जातिवाद जैसी समस्याओं का सामना करने के लिए भारत के संविधान में प्रदत्त सभी उपाय बेमानी सिद्ध हो चुके हैं और यदि सामाजिक-राजनैतिक भागीदारी के लिए भारत में डॉ. अंबेडकर के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया गया होता तो स्थिति निश्चित रूप से आज से भिन्न होती। यहां हम डॉ. अंबेडकर के धार्मिक-सक्रियता के तहत बौद्ध धर्म अपनाने तथा दलितों को हिंदू धर्म से पार्थक्य को सिद्ध करने के पीछेे की रणनीति तथा दृष्टिकोण को समझा जा सकता है।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में अभिव्यक्त डॉ. अंबेडकर के विचार जनता के वास्तविक जनवादी अधिकारों का पक्षपोषण करते हैं। यह भारत के लोकतंत्र के अब तक हासिल नहीं की जा सकी उपलब्धियों का दस्तावेज है, जिसे आज भारत के क्रांतिकारी वामपंथी आंदोलन को हासिल करना है। डॉ. अंबेडकर के ये विचार न सिर्फ वामपंथ बल्कि नए दौर के दलित आंदोलन का भी अभिप्राय है। आइए, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम संगठित प्रयास करें।

नोट- लेख में उद्धृत किए गए सभी उद्धरण ‘बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वांङ्मय, खंड-2’, प्रकाशक- डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, भारत सरकार, नई दिल्ली, चैथे संस्करण-2013 से लिए गए हैं।


रामायन राम