Sunday, 19 April 2015

कंपनी राज का आगाज

                                                [संपादकीय, समकालीन जनमत, मार्च, 2015]                                               

आम तौर पर कंपनी राज शब्द का इस्तेमाल ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के लिए होता रहा है। जो भारत में व्यापार करने आई थी, जिसके पास अपनी सेना थी, जो भारतीय सेना के साथ अपना काम करती थी, और जिसके पास अपने प्रशासनिक अधिकार थे, जिसने आपसी फूट के शिकार रियासतों पर धीरे-धीरे कब्जा कर लिया, जिसने इस देश के प्राकृतिक संसाधनों को भीषण तरीके से लूटा और जनता को कंगाल बनाया। जिसके खिलाफ 1857 में जबर्दस्त जनविद्रोह हुआ, जिसे कुचलने के लिए उसने अभूतपूर्व नृशंसता का परिचय दिया। हाल में यह सुनने में आया कि उस पुरानी ईस्ट इंडिया कंपनी को एक भारतीय ने खरीद लिया है। 

यह दौर अमेरिकी साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का है, जो भारत समेत दुनिया के दूसरे देशों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट में लगी हुई हैं और उन देशों की राजनीतिक सत्ता पर अपना नियंत्रण कायम रखना चाहती हैं, ताकि लूट और मुनाफे का निर्बाध अधिकार उन्हें हासिल रहे। लेकिन यह बर्बरता तब और बढ़ जाती है, जब पूंजी अवसादग्रस्त होती है। यही कारण है कि आर्थिक मंदी के बाद पूरी दुनिया में उन्माद की राजनीति कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। खासकर उन देशों में जहां  लूट और मुनाफे की ज्यादा संभावना है, वहां की अर्थनीति उन्माद और कत्लेआम की राजनीति के सहारे ही चल रही है। 

अपने देश में काफी जनदबाव में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए जिस भूमि अधिग्रहण कानून में कुछ बदलाव किए गए थे, केंद्र में भाजपा की सरकार आते ही उन्हें पलट दिया गया। यह सरकार लूट  की अर्थनीति और उन्माद की राजनीति की अपने आप में मिसाल है। हमने जनमत के इस अंक में इन दोनों पहलुओं पर सामग्री दी है। मोदी का राज किस तरह कंपनी राज में तब्दील हो चुका है, इसे इस सरकार के हालिया बजट पर केंद्रित डाॅ. भारती के लेख को पढ़ते हुए समझा जा सकता है। इस लेख में इस तथ्य को उजागर करते हुए कि पहले से ही अधिगृहित की गई हजारों हेक्टयेर जमीन पर कोई विकास परियोजना शुरू नहीं की गई, हड़बड़ी में सरकार द्वारा भूमि-हड़प अध्यादेश पारित करने पर सवाल खड़ा किया गया है। मध्याह्न भोजन, जनस्वास्थ्य तथा बाल विकास के बजट में की गई कटौतियों और वृद्धों, विधवाओं और विकलांगों को दिए जाने वाले पेंशन में कोई बढ़ोत्तरी न किए जाने   को सरकार के जनविरोधी रवैये के तौर पर चिह्नित किया गया है। इसमें इसके आंकड़े भी दिए गए हैं कि काॅरपोेटपरस्त सरकारें किस तरह आम आदमी को मिलने वाली सब्सिडी के मुकाबले कारपारेट कंपनियों को अधिक रियायत दे रही हैं।

मोदी सरकार किस तरह रोजगार, आजीविका, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में जारी योजनाओं को कमजोर कर रही है या लोगों को उनके फायदे से वंचित करने की साजिशें रच रही है, इसके बारे में इस अंक में हम लेख प्रकाशित कर रहे है।

अर्थनीति हो या शिक्षा या पुलिस प्रशासन और न्याय व्यवस्था- किसी का गरीबों, मेहनतकशों और दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति समानतापूर्ण व्यवहार नहीं है। इस विभेदपूर्ण रुख को ही काॅमन सेंस बना देने की हरसंभव कोशिश की जाती रही है। सत्ता संरक्षित सांप्रदायिक-अंधराष्ट्रवादी गिरोह विभेद, घृणा और उन्माद को बढ़ावा देने में लगे हैं। आर. अखिल ने अपने लेख ‘लोकतंत्र पर हावी होते भीड़तंत्र के खतरे’ में इसे बखूबी चिह्नित किया है कि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, इराक, सीरिया, लीबिया, ट्यूनीशिया, श्रीलंका, बर्मा, चीन, फिलीपींस, थाईलैंड और मालदीव में भी इसी तरह का सिलसिला जारी है। 

राष्ट्र-राज्य के कारपोरेट कंपनियों  के आगे आत्मसर्मपण और लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले के इस दौर में हम डाॅ. अंबेडकर के दस्तावेज ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ पर रामायन राम का एक जरूरी आलेख इस अंक में प्रकाशित कर रहे हैं। जिसमें दलितों-वंचितों और अल्पसंख्यकों के लोकतांत्रिक अधिकारों के संदर्भ से व्यवस्था की आलोचना की गई है और राज्य नियंत्रण से मुक्त निजीकरण के खतरों से भी अवगत कराया गया है।

इन पंक्तियों को लिखते वक्त दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा के कारपोरेटपरस्त-सांप्रदायिक फासीवाद की राजनीति के विजय अभियान को रोकने वाली ‘आप’ पार्टी में जिस तरह का जूतम-पैजार मचा हुआ है और जिस तरह दिल्ली में मजदूरों के प्रदर्शन को पुलिस ने कुचला है, उसमें एक स्पष्ट संकेत मौजूद है। काॅरपोरेटपरस्त शासकवर्ग के खिलाफ जनता की जो लड़ाइयां देश में चल रही हैं, वे बड़ा रूप अख्तियार करेंगी, यह अवश्यंभावी लगता है।

भगतसिंह की बात इन लड़ाइयों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य देती है कि ‘‘यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता...

हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करे। किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि जीवन और मृत्यु की बाजी लग जाए।...पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति पूरा नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नहीं हो जाता।’’

(20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर के नाम पत्र का अंश) 

2 comments:

  1. शानदार लेख भईया ।

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  2. शानदार लेख भईया ।

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