Monday, 13 April 2015

'राज्य और अल्पसंख्यक'- डॉ. अंबेडकर के क्रांतिकारी विचारों का दस्तावेज़ !

[समकालीन जनमत, 
अप्रैल 2015 अंक से]

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा के सदस्य तथा प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में भारतीय संविधान को वर्तमान स्वरूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। चूंकि संविधान सभा के समक्ष आए प्रस्तावों पर बहस-मुबाहिसे के बाद बहुमत से पारित प्रस्तावों को संकलित किया गया, इसलिए संविधान सभा के ज्यादातर सदस्यों के विचारों और दृष्टिकोण का प्रतिबिंब भारतीय संविधान है। लेकिन प्रारूप समिति के अध्यक्ष से अलग देश के बहुसंख्यक दलितों, शोषितों के प्रतिनिधि के रूप में डॉ. अंबेडकर के ज्यादातर प्रगतिशील प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया गया था। अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अस्पृश्यों के लिए डॉ. अंबेडकर अपनी मांग की अपेक्षा बहुत ही कम प्राप्त कर सके थे।

भारतीय संविधान तथा शासन-प्रणाली में अंबेडकर के विचारों के अनुरूप क्या नहीं है, इसे जानने के लिए हमें उनके द्वारा लिखा गया दस्तावेज ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ पढ़ना चाहिए। ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में डॉ. अंबेडकर ने अपने उन समग्र क्रांतिकारी विचारों को संग्रहित किया है जो उनके समूचे राजनैतिक दर्शन तथा व्यवहार का निचोड़ है। ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ पढ़कर यह पता चलता है कि अम्बेडकर अपने समकालीन राष्ट्रीय नेताओं से किस प्रकार कहीं ज्यादा प्रगतिशील, लोकतांत्रिक तथा आधुनिक सोच वाले थे। डॉ. अंबेडकर के नाम पर देश में दलित अस्मिता की राजनीति करने वाली ताकतों ने उन्हें भारत के पूंजीवादी-सामंतवादी सत्ता में भागीदारी के दलित-महत्वाकांक्षा का प्रतीक बनाकर पेश किया जो मूलतः डॉ. अंबेडकर की वैचारिक प्रेरणा के बिल्कुल विपरीत है। राज्य और अल्पसंख्यक में हम देखते हैं कि वस्तुतः डॉ. अंबेडकर भारतीय शासन-सत्ता के चरित्र को पूरी तरह बदल कर सत्ता के केंद्र में मजदूरों-किसानों तथा दलितों-वंचितों को स्थापित करना चाहते थे, जाहिर है संवैधानिक माध्यम से। ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ भारतीय संविधान का वह रूप है जिसे डॉ. अंबेडकर आकार देना चाहते थे। डॉ. अंबेडकर किस तरह का भारत बनाना चाहते थे इसकी स्पष्ट समझदारी हमें ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में दिखती है। राज्य और अल्पसंख्यक वस्तुतः भारत की संविधान निर्मात्री सभा के समक्ष अनुसूचित जाति-जनजाति परिसंघ की ओर से दिया गया ज्ञापन है, जिसे डॉ. अंबेडकर ने तैयार किया था। देश के करोड़ों दलित-उत्पीडि़त जनता की वर्तमान हालत के संदर्भ में यह भारतीय इतिहास की महान विडंबना है कि इस ज्ञापन प्रस्ताव को संविधान सभा ने स्वीकार नहीं किया, लेकिन इसका महत्त्व इस बात में है कि उसमें अंबेडकर के क्रांतिकारी जनवाद के विचारों का व्यावहारिक पक्ष जोरदार तरीके से अभिव्यक्त हुआ है।

इस ज्ञापन में डॉ. अंबेडकर ने अस्पृश्य जातियों, गरीबों, वंचितों के हितों को मौलिक अधिकारों के वृहत्तर संदर्भ के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया है। दलितों की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक सुरक्षा का प्रश्न महज संवैधानिक संरक्षणकारी दायित्व नहीं बल्कि संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का मूलभूत तत्व है। राज्य और अल्पसंख्यक की मूल भावना को स्पष्ट करते हुए बाबा साहब ने प्रस्तावना में लिखा- ‘‘इस ज्ञापन में मूल अधिकारों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों और अनुसूचित जातियों के सुरक्षा उपायों की परिभाषा दी गई है। जिन लोगों का यह विचार है कि अनुसूचित जातियां अल्पसंख्यक नहीं हैं वे यह कह सकते हैं कि मैंने निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण किया है। यह धारणा कि अनुसूचित जातियां अल्पसंख्यक नहीं हैं, उच्च और शक्तिसम्पन्न हिन्दू बहुसंख्यक की ओर से जारी की गई एक नई व्यवस्था है और अनुसूचित जातियों से कहा जाता है कि वे इस बात को मानकर चलें। लेकिन बहुसंख्यक वर्ग के प्रवक्ता ने इसकी व्याप्ति और इसका अर्थ नहीं बताया है। नवीन एवं स्वतंत्र विचारों वाला कोई भी व्यक्ति इसे सामान्य प्रस्ताव के रूप में देखते हुए जब यह कहेगा कि इसके दो निर्वचन (व्याख्या) किए जा सकते हैं, तो ऐसा कहना न्यायोचित होगा। मैं इसका निर्वचन यह करता हूं कि अनसूचित जातियों की दशा अल्पसंख्यकों से भी खराब है और नागरिकों तथा अल्पसंख्यकों को जो भी संरक्षण दिए जाएंगे, वे अनुसूचित जातियों के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। दूसरे शब्दों में, इसका अभिप्राय यह है कि अनुसूचित जातियों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति अन्य नागरिकों और अल्पसंख्यकों की तुलना में इतनी खराब है कि उन्हें उस संरक्षण के अलावा जिसे वे नागरिकों तथा अल्पसंख्यकों के नाते प्राप्त करेंगे, बहुसंख्यकों के अत्याचार और भेदभाव के विरूद्ध विशेष सुरक्षा उपायों की जरूरत होगी।’’ स्पष्ट है कि डॉ. अंबेडकर अनुसूचित जातियों के लिए अल्पसंख्यक के दर्जा प्राप्त करने की वकालत करते हैं, ऐसा वे गोलमेज सम्मेलन में उठाए गए ‘कम्युनल अवार्ड’ के तहत पृथक निर्वाचन मण्डल की मांग के समय से करते रहे हैं। पूना पैक्ट के तहत डॉ. अंबेडकर को अपनी यह मांग छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा था। डॉ. अंबेडकर प्रारम्भ से ही यह सिद्ध करने में लगे रहे कि अछूत व शूद्र जातियां हिंदू पहचान के अंतर्गत समाहित नहीं की जा सकतीं, इसलिए उन्हें भी भारत में अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए। 

‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में वे पुनः इस समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। इसके अलावा देशी राज्यों की समस्याओं कोभी इस ज्ञापन मंे शामिल किया था। इस ज्ञापन को डॉ. अंबेडकर ने संविधान के अनुच्छेदों के रूप में तैयार किया था, उनका इरादा इसे संविधान सभा में प्रस्तुत करने का था लेकिन अपने सवर्ण हिंदू मित्रों के आग्रह पर उन्होंने इस ज्ञापन को सार्वजनिक बहस के लिए व्यापक रूप से प्रचारित किया था। आज यह ज्ञापन भारतीय राष्ट्र के समक्ष एक प्रश्न चिह्न की तरह खड़ा है। यह दस्तावेज न सिर्फ डॉ. अंबेडकर के राष्ट्र निर्माण के प्रति अपनाए गए दृष्टिकोण, उनकी प्रगतिशील लोकतांत्रिक चेतना को सामने लाता है बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के उन अधूरे आशयों की पड़ताल भी करता है जिसके कारण आज भी हमारे देश में करोड़ों दलितों को, भूमिहीनों-गरीबों को मानवीय गरिमा प्राप्त नहीं हो सकी है। इस लेख में हम बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के उन महत्त्वपूर्ण प्रस्थापनाओं पर चर्चा करेंगे जिन पर बहुत कम चर्चा की गई है तथा डॉ. अंबेडकर का नाम लेकर अस्मिता की राजनीति करने वाले लोगों ने भी जान-बूझकर इन विचारों को छिपाया। ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ जैसा कि पहले बताया गया कि संविधान के अनुच्छेद, अनुभाग, खंड इत्यादि में क्रमबद्ध तरीके से विभाजित करके लिखा गया है। इसमें उद्देशिका के अलावा कुल दो अनुच्छेद हैं। अनुच्छेद-1 में ‘देशी राज्यों’ के संघ में शामिल होने संबंधी प्रस्तावों को शामिल किया गया है, जिस पर चर्चा इस लेख का उद्देश्य नहीं है। अनुच्छेद-2 के अंतर्गत नागरिकों के मूल अधिकारों के संबंध में विस्तार से चर्चा है। दो अनुच्छेदों के साथ ‘परिशिष्ट’ के अंतर्गत स्पष्टीकरण टिप्पणी में डॉ. अंबेडकर ने अपने प्रस्तावों को विश्लेषित करने के लिए जो व्याख्याएं तथा स्पष्टीकरण दिया है, आज उन्हीं का महत्त्व ज्यादा है।

डॉ. अंबेडकर संविधान के इस प्रारूप के अन्तर्गत ‘मूल अधिकारों पर आक्रमण के विरुद्ध उपचार’ के अंतर्गत खंड-4 में यह व्यवस्था करते हैं-

‘‘संयुक्त राज्य भारत अपने संविधान की विधि के भाग के रूप में यह घोषणा करेगा कि-

1. वे उद्योग जो प्रमुख उद्योग हैं अथवा जिन्हें प्रमुख उद्योग घोषित किया जाए, राज्य के स्वामित्व में रहेंगे और राज्य द्वारा चलाए जाएंगे; 

2. वे उद्योग के प्रमुख उद्योग नहीं हैं, किन्तु बुनियादी उद्योग हैं, राज्य के स्वामित्वाधीन रहेंगे और राज्य द्वारा या राज्य द्वारा स्थापित निगमों द्वारा चलाए जाएंगे,

3. बीमा राज्य के एकाधिकार में रहेगा और राज्य हर नागरिक को विवश करेगा कि वह अपनी आय के अनुरूप ऐसी जीवन बीमा पाॅलिसी ले, जो विधानमण्डल द्वारा विहित की जाए,

4. कृषि राज्य उद्योग होगा; .... कृषि उद्योग को संगठित स्वरूप देने तथा उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व उद्देश्य से डॉ. अंबेडकर खंड-4 में ही यह व्यवस्था दी- ‘‘राज्य अर्जित भूमि को मानक आकार के फार्मों में विभाजित करेगा और उन्हें गांव के निवासियों को पहरेदारों के रूप में (कुटुंबों के समूह से निर्मित) आगे दी गई शर्तों पर खेती करने के लिए देगा: 

(क) फार्म पर खेतीबारी सामूहिक फार्म के रूप में की जाएगी;

(ख) फार्म पर खेतीबारी सरकार द्वारा जारी किए गए नियमों और निर्देशों के अनुसार की जाएगी;

(ग) पट्टेदार फार्म पर उचित रूप से उगाही करने योग्य प्रभार अदा करने के बाद फार्म की शेष उपज को आपस में विहित रीति से बांटेंगे;

(घ) भूमि गांव के लोगों की जाति या पंथ के भेदभाव के बिना पट्टे पर दी जाएगी और ऐसी रीति से पट्टे पर दी जाएगी कि कोई जमींदार न रहे, कोई पट्टेदार न रहे और न कोई भूमिहीन मजदूर रहे;

(ङ) राज्य पानी, जोतने-बोने के लिए पशु, उपकरण, खाद, बीज, आदि देकर सामूहिक फार्म की खेती के लिए वित्तीय सहायता देने के लिए बाध्य होगा।’’

ये वो प्रस्ताव हैं जो उद्योग व कृषि जैसे उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व के बजाए सार्वजनिक मालिकाने व सामूहिक श्रम के सिद्धांत पर आधारित हैं। निश्चित तौर पर यदि भारतीय राष्ट्र राज्य खुद को इन सिद्धांतों को लागू करने में समर्थ पाता तो यह न सिर्फ भारत बल्कि समूची दुनिया के जनतांत्रिक इतिहास की सर्वाधिक क्रांतिकारी घटना होती, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। डॉ. अंबेडकर इन अवधारणाओं को सिर्फ प्रस्ताव और घोषणा तक ही सीमित करके नहीं देखते। इसके पीछे के ठोस सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को भी वे सामने लाते हैं। इस खंड-4 के अंतर्गत ही वे यह उपबंध भी करते हैं कि यह योजना हर हाल में संविधान लागू होने के दस वर्ष के भीतर लागू हो जानी चाहिए। किसी भी स्थिति मंे संविधान लागू होने की तारीख से दसवें वर्ष के बाद इस योजना को टाला नहीं जा सकता।

अब आइए देखते हैं कि उपरोक्त प्रस्तावों को सूत्रबद्ध करने के पीछे डॉ. अंबेडकर के तर्क क्या हैं। ‘परिशिष्ट’ के अंतर्गत अनुच्छेद-2 के अनुभाग-2 के खंड-4 का स्पष्टीकरण देते हुए डॉ. अंबेडकर लिखते हैं- ‘‘इस खंड के पीछे मुख्य प्रयोजन राज्य पर यह दायित्व डालता है कि वह लोगों के आर्थिक जीवन को इस प्रकार योजनाबद्ध करे कि उससे उत्पादकता का सर्वोच्च बिंदु हासिल हो जाए और निजी उद्यम के लिए एक भी मार्ग बंद न हो और संपदा के समान वितरण के लिए भी उपबंध किया जाए। इस खंड के अंतर्गत वर्णित योजना के अनुसार कृषि के क्षेत्र में राजकीय स्वामित्व प्रस्तावित हैं, जहां सामूहिक पद्धति से खेतीबारी की जाए तथा उद्योग के क्षेत्र में राजकीय समाजवाद का रूपांतरित रूप भी प्रस्तावित है। इसमें कृषि एवं उद्योग के लिए आवश्यक पूंजी सुलभ कराने की बाध्यता राज्य के कंधों पर स्पष्ट रूप से डाली गई है। राज्य द्वारा पूंजी उपलब्ध कराए बिना कृषि या उद्योग से बेहतर परिणाम नहीं लिए जा सकते। इसमें यह भी प्रस्तावित है कि बीमा का दोहरे उद्देश्य से राष्ट्रीयकरण किया जाए। व्यक्ति को निजी बीमा फर्म की अपेक्षा राष्ट्रीयकृत बीमा से अधिक सुरक्षा मिलती है, क्योंकि उसके अंतर्गत राज्य के संसाधन व्यक्ति की बीमा राशि के अंतिम भुगतान की प्रतिभूति के रूप में गिरवी रहते हैं। साथ ही राज्य को भी अपनी आर्थिक योजना के वित्त-प्रबंधन के लिए आवश्यक संसाधन मिल जाते हैं। अन्यथा राज्य को ऊंची ब्याज दर पर बाजार से धन उधार लेना पड़ेगा। भारत का तेजी से औद्योगीकरण करने के लिए राजकीय समाजवाद अनिवार्य है। निजी उद्यम ऐसा नहीं कर सकता और यदि कर सकता है तो भी संपदा की विषमताओं को जन्म देगा, जो निजी पूंजीवाद ने यूरोप में पैदा की है और जो भारतीयों के लिए एक चेतावनी होगी। चकबंदी और काश्तकारी विधान व्यर्थ से भी बदतर हैं। उनसे कृषि-क्षेत्र समृद्ध नहीं हो सकता। न तो चकबंदी और न ही काश्तकारी विधान छह करोड़ अस्पृश्यों के लिए सहायक हो सकते हैं, जो भूमिहीन मजूदर हैं। न तो चकबंदी और न ही काश्तकारी विधान उनकी समस्याओं का निराकरण कर सकते हैं। प्रस्ताव में वर्णित विधि से स्थापित सामूहिक कार्य ही उनके लिए सहायक हो सकते हैं। संबंधित हितों के स्वत्वहरण का कोई प्रश्न नहीं है। परिणाम स्वरूप इस आधार पर इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया जाना चाहिए।’’

‘‘आज हम सब आजाद भारत के पिछले 67-68 वर्षों के अनुभव से यह जानते हैं कि डॉ. अंबेडकर के इस प्रस्ताव का विरोध किया जाना अवश्यंभावी था क्योंकि अपने प्रस्ताव में उन्होंने भारतीय राष्ट्र के लिए सबसे असहज कर देने वाले डरावने सिद्धांतों को ‘राजकीय-समाजवाद’ के रूप में स्थापित कर दिया था। देशी-विदेशी पूंजी के एजेंट और ब्राह्मणवादी सामंती सत्ता के केंद्र के रूप में कार्यरत हमारे राष्ट्रीय नेता इस प्रस्ताव का विरोध जरूर करेंगे इस बात का अंदेशा डॉ. अंबेडकर को था। इसीलिए उन्होंने कहा कि संवैधानिक विधि के छात्र तुरंत विरोध करेंगे, वे पूछेंगे कि क्या यह प्रस्ताव सामान्य प्रकार के मूल अधिकारों की परिधि से बाहर नहीं जाता? डॉ. अंबेडकर इसका उत्तर नहीं में देते हैं। अपनी बात को वे जोरदार तर्क देते हुए प्रमाणित करते हैं, वे लिखते हैं- ‘‘जो बेरोजगार हैं, उनसे पूछिए कि मूल अधिकारों का उनके लिए क्या महत्त्व है। यदि किसी बेरोजगार से एक ऐसी नौकरी जिसमें कुछ वेतन मिले कोई निश्चित कार्य घंटे न हों और संघ में शामिल होने की मनाही हो तथा वाक्, संगम, धर्म आदि की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रयोग के बीच निर्वाचन करने के लिए कहा जाए, तो क्या इसमें कोई संदेह हो सकता है कि उसका निर्वाचन क्या होगा। दूसरा निर्वाचन हो भी कैसे सकता है? भूख का भय, मकान खो देने का भय, बचत, यदि कोई है, से हाथ धो बैठने का भय, बच्चों को स्कूल से निकाले जाने का भय, सार्वजनिक खैरात पर एक बोझ बने रहने का भय, सार्वजनिक खर्च पर दाह या दफन किए जाने का भय- ये सब तत्व इतने प्रबल हैं कि ये किसी आदमी को अपने मूल अधिकारों के लिए खड़ा होने की इजाजत नहीं देते। इस प्रकार बेरोजगार व्यक्ति को काम करने और जीवन-निर्वाह करने का विशेषाधिकार पाने की खातिर अपने मूल अधिकार को छोड़ने के लिए विवश होना पड़ता है।’’

आज हम डॉ. अंबेडकर के इन प्रस्थापनाओं को आजाद भारत में लगभग हू-ब-हू साबित होता हुआ पाते हैं। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के राज में नागरिकों के मूल अधिकारों के लिए कोई स्थान नहीं बचा है। भारत में मूल अधिकार अब केवल दिखावे की चीज रह गयी है। मजदूरों को यूनियन बनाने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है, यह सब हम मारूति मजदूरों के मामले में देख चुके हैं, ऐसे उदाहरणों की भरमार है, जहां यह सिद्ध होता है कि बाजारवादी अर्थव्यवस्था में मौलिक अधिकारों को ठेंगे पर रखा जाता है। भारत में आज के कृषि संकट तथा बेरोजगारी की विकराल समस्या के वर्तमान रूप को भी हम डॉ. अंबेडकर के उपरोक्त विश्लेषण में आशंका के रूप में पाते हैं।

डॉ. अंबेडकर अपने विश्लेषण में निजी स्वामित्व पर आधारित उद्योग व कृषि की विसंगतियों को भी उजागर करते हैं- ‘‘यह सच है कि जहां राज्य हस्तक्षेप से विमुख रहता है, वहां जो शेष रहता है, वह है स्वाधीनता... यह किसे और किसके लिए? प्रकटतः यह स्वाधीनता जमींदारों को लगान बढ़ाने, पूंजीपतियों को कार्य के लिए घंटे बढ़ाने और मजदूरी घटाने की स्वाधीनता है। दूसरे शब्दों में, जिसे राज्य के नियंत्रण से मुक्ति कहते हैं, वहीं प्राइवेट नियोजक के एकाधिकार का दूसरा नाम है।’’

उपरोक्त समस्याओं के निराकरण के रूप में डॉ. अंबेडकर ‘राजकीय समाजवाद’ की अवधारणा सामने लाते हैं। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि अंबेडकर के समाजवाद की अवधारणा, माक्र्सवादी चिंतन प्रणाली पर आधारित वैज्ञानिक समाजवाद से प्रेरित नहीं है। डॉ. अंबेडकर प्रचलित अर्थ में माक्र्सवादी नहीं हैं। अपने चिंतन व कर्म में उन्होंने फ्रांस की लोकतांत्रिक क्रांति के समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व के सर्वोच्च आदर्शों को आत्मसात किया था, लेकिन भारत जैसे पिछड़े-कृषि समाज और औपनिवेशिक गुलामी की प्रतिछाया से ग्रस्त देश के बहुसंख्यक गरीबों-भूमिहीनों तथा अछूत-शूद्र जातियों के आर्थिक व सामाजिक आजादी का उनका सरोकार उन्हें सहज रूप से समाजवाद की ओर ले जाता है। यह एक ईमानदार-क्रांतिकारी व गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति रखने वाले वर्ग सचेत नेता की स्वाभाविक चिंतन यात्रा है। यहां यह भी कहना गलत न होगा कि पूंजीवादी लोकतंत्र के सर्वाधिक रेडिकल रूप की सीमा ही वस्तुतः डॉ. अंबेडकर के इस चिंतन की सरहद है। यही कारण है कि भारत में सर्वहारा की तानाशाही की जरूरत को रेखांकित करते हुए भी डॉ. अंबेडकर समाजवाद के राजकीय स्वरूप की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं जो भारत के शासन-प्रणाली में संवैधानिक रूप से स्थायी हो। बहरहाल, राजकीय समाजवाद के संदर्भ में डॉ. अंबेडकर के विचार देखिए- 

‘‘तो फिर इसका (राजनैतिक लोकतंत्र का- ले.) विकल्प क्या है? विकल्प है तानाशाही। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तानाशाही वह स्थायित्व प्रदान कर सकती है, जो राजकीय समाजवाद के फलने-फूलने की एक अनिवार्य शर्त के रूप में जरूरी है। किन्तु तानाशाही शासन के खिलाफ एक बात है, जो अवश्य सामने आएगी। जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता में विश्वास रखते हैं वे तानाशाही का कड़ा विरोध करते हैं और स्वतंत्र समाज के लिए संसदीय लोकतंत्र का उचित शासन-प्रणाली के रूप में आग्रह करते हैं, क्योंकि वे यह महसूस करते हैं कि व्यक्ति स्वतंत्रता संसदीय लोकतंत्र के अंतर्गत ही संभव है न कि तानाशाही के अंतर्गत।... अतः समस्या है तानाशाही रहित राजकीय समाजवाद अपनाने की, संसदीय लोकतंत्र सहित राजकीय समाजवाद पाने की। इसका हल संसदीय लोकतंत्र को रखना तथा संविधि द्वारा राजकीय समाजवाद विहित करना ही प्रतीत होता है, ताकि संसदीय बहुमत उसे निलंबित, संशोधित या निराकृत न कर पाए। इसी मार्ग से तीन उद्देश्य प्राप्त किए जा सकते हैं। ये हैं, समाजवाद की स्थापना, संसदीय लोकतंत्र जारी रखना और तानाशाही से बचना।’’

ये विचार डॉ. अंबेडकर के हैं, जो भारत के संविधान में राजकीय समाजवाद के अंतर्गत उद्योगों व कृषि के राष्ट्रीयकरण की बात करते हैं, जो भारत जैसे नव स्वतंत्र देश के लिए क्रांतिकारी जनवाद की दिशा में बढ़ाया गया एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता था। दुर्भाग्य से भारत के राजनैतिक चिंतन तथा व्यावहारिक राजनीति में डॉ. अंबेडकर के विचारों को लेकर चलने वाले लोगों ने उनके इन वैचारिक स्थापनाओं को छिपा कर रखा, और भारत के सवर्ण-सामंती और पूंजीवादी सत्ता के सुविधानुसार डॉ. अंबेडकर की अस्मितावादी छवि गढ़ने की कोशिश की गयी।

‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में अनुच्छेद-2 के अनुभाग-3 के अंतर्गत अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए उपबंध किए गए हैं, अनुभाग-4 में अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षा उपायों की बात की गयी है। यहां पर डॉ. अंबेडकर अनुसूचित जातियों को अल्पसंख्यक मानने तथा उनके सामाजिक बहिष्कार और उत्पीड़न पर प्रभावी रोक लगाने तथा विधान मंडल में उनकी समुचित व न्यायपूर्ण भागीदारी की जोरदार वकालत करते हैं। विधान मंडल में अनुसूचित जातियों की समुचित भागीदारी तथा उनके राजनीतिक संरक्षण के लिए उन्होंने पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था को लागू करने के प्रस्ताव को फिर से सामने रखा। पूना-समझौते के तहत अछूत जातियों के लिए विधान मंडल में किए गए आरक्षण की व्यर्थता को डॉ. अंबेडकर अपने अनुभवों से जानते थे। बहुसंख्यक हिंदुओं द्वारा सामाजिक भेद-भाव के शिकार अनुसूचित जातियों को ठीक इसी कारण से मुसलमानों के समकक्ष अल्पसंख्यक मानते हैं- ‘‘यह कहना कि अनुसूचित जातियां हिंदू हैं और इसलिए वे पृथक निर्वाचक-मंडल की मांग नहीं कर सकतीं, एक ही तर्क को अलग ढंग से प्रस्तुत करना है। धर्म को संवैधानिक सुरक्षा के लिए निर्णायक मानना इस तथ्य की उपेक्षा करता है कि धार्मिक जुड़ाव के साथ-साथ तीव्र सामाजिक पार्थक्य और भेद-भाव भी रहता है। यह मान्यता कि पृथक निर्वाचक-मंडल पृथक धर्म के साथ जुड़ा हुआ है, इस कारण बनी है कि जिन समुदायों को पृथक निर्वाचक-मंडल मिला हुआ है, वे धार्मिक समुदाय हैं। लेकिन यह सही नहीं है। मुसलमानों को इसलिए पृथक निर्वाचक-मंडल नहीं मिला कि वे धर्म के मामले में हिंदुओं से भिन्न हैं।’’ उन्हें इसलिए पृथक निर्वाचक-मंडल मिला है कि (और यह मूल कारण है) मुसलमानों और हिंदुओं के सामाजिक संबंधों में भेद-भाव है।’’

पृथक निर्वाचक-मंडल की बात वर्तमान भारत में लागू करने की बात आज संभवतः सोची नहीं जा सकती, लेकिन यह समझा जा सकता है कि वर्तमान भारत में सांप्रदायिकता और जातिवाद जैसी समस्याओं का सामना करने के लिए भारत के संविधान में प्रदत्त सभी उपाय बेमानी सिद्ध हो चुके हैं और यदि सामाजिक-राजनैतिक भागीदारी के लिए भारत में डॉ. अंबेडकर के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया गया होता तो स्थिति निश्चित रूप से आज से भिन्न होती। यहां हम डॉ. अंबेडकर के धार्मिक-सक्रियता के तहत बौद्ध धर्म अपनाने तथा दलितों को हिंदू धर्म से पार्थक्य को सिद्ध करने के पीछेे की रणनीति तथा दृष्टिकोण को समझा जा सकता है।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में अभिव्यक्त डॉ. अंबेडकर के विचार जनता के वास्तविक जनवादी अधिकारों का पक्षपोषण करते हैं। यह भारत के लोकतंत्र के अब तक हासिल नहीं की जा सकी उपलब्धियों का दस्तावेज है, जिसे आज भारत के क्रांतिकारी वामपंथी आंदोलन को हासिल करना है। डॉ. अंबेडकर के ये विचार न सिर्फ वामपंथ बल्कि नए दौर के दलित आंदोलन का भी अभिप्राय है। आइए, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम संगठित प्रयास करें।

नोट- लेख में उद्धृत किए गए सभी उद्धरण ‘बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वांङ्मय, खंड-2’, प्रकाशक- डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, भारत सरकार, नई दिल्ली, चैथे संस्करण-2013 से लिए गए हैं।


रामायन राम 












3 comments:

  1. अच्‍छा है भार्इ

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  2. संजय जोशी14 April 2015 at 10:57

    इस लेख के लेखक रामायन राम के बारे में भी 2-3 पंक्तियों का परिचय जाता तो बुरा नहीं लगता . उम्मीद की जाय कि ब्लॉग एडमिन अगली बार इस चूक से बचेंगे . बाकी तो अच्छा ही लगा .

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  3. राम टाइटल वालो की बाबत ऐसी चूक सवर्ण ब्राह्मण वर्चस्व वाले समकालीन जनमत से हो ही जाता है जिसके आइकॉन सहजानन्द जैसे भूमिहार नेता है

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